अब मोदी सरकार के सामने जनता के विश्वास को कायम रखने की चुनौती कृष्णमोहन झा/
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष आज पूरे कर लिए हैं।अगर इसमें उनके पहले कार्यकाल को भी जोड़ दिया जाए तो वे लगातार सात वर्षों से इस देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष जब पूर्ण हुआ था उसके लगभग तीन माह पूर्व ही विश्वव्यापी कोरोना संकट भारत में दस्तक दे चुका था जिसको नियंत्रित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने गत वर्ष मार्च में पहले एक दिन के जनता कर्फ्यू और दो दिन बाद ही देश भर में संपूर्ण लाक डाउन लागू करने का कठोर फैसला किया था। वह कोरोना की पहली लहर थी जिसने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत पीछे ढकेल दिया। उद्योग धंधे बंद होने से लाखों लोगों को बेरोजगारी का शिकार बना दिया। अचानक रेलगाड़ियां बंद होने से लाखों प्रवासी मजदूरों को असहनीय तकलीफों का
सामना करना पड़ा। भयावह हादसों में सैकड़ों गरीब मजदूर असमय मृत्यु का शिकार हो गए। कोरोना की पहली लहर के यंत्रणा दायक अनुभवों को लोग भुला भी नहीं पाए थे कि कोरोना की दूसरी लहर ने और भी विकराल रूप में अधिकांश राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया लेकिन इस बार केंद्र सरकार ने कोरोना संकट से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी। संभवतः इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव कराए जाने थे । यह भी कम आश्चर्यजनक बात नहीं थी कि जब देश के अनेक राज्य कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका का सामना कर रहे थे तब देश के पांच राज्यों में राजनीतिक दल भीड़भरी चुनाव रैलियों के माध्यम से अपनी चुनावी संभावनाओं को बलवती बनाने की कोशिशों में जुटे हुए थे। इन रैलियों पर रोक लगाने में चुनाव आयोग की असफलता के लिए मद्रास हाईकोर्ट ने उसे जमकर फटकार भी लगाई। कोरोना की दूसरी लहर के प्रकोप ने जब पश्चिम बंगाल में भी अपना असर दिखाना शुरू किया तो वहां भी सत्ता के दावेदार राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी रैलियों को रद्द करने की घोषणा कर दी लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। पश्चिम बंगाल में भाजपा को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिन चुनावी रैलियों को संबोधित किया उनमें जुटी लाखों लोगों की भीड़ सारे देश में चर्चा का विषय बन गई परंतु चूंकि भाजपा हर हालत में पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज होना चाहती थी इसलिए वह सारी आलोचनाओं को नजरंदाज करती रही लेकिन अधिकांश राज्यों में पांव पसार चुके भयावह कोरोना संकट के ऊपर पश्चिम बंगाल में पहली बार सत्ता हासिल करने की महत्वाकांक्षा को तरजीह देना भाजपा के लिए महंगा सौदा साबित हुआ। जो भाजपा राज्य विधानसभा के इन चुनावों में सदन की 294 सीटों में से दो सौ से सीटों पर शानदार जीत का सुनहरा स्वप्न संजोए बैठी थी वह जब 78 सीटों पर ही सिमट गई तो उस हार ने पार्टी को तो स्तब्ध कर ही दिया लेकिन उससे भी बड़ा नुक्सान पार्टी को यह हुआ कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता पर भी सवाल उठने लगे । देश के कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने तो पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता के ग्राफ में गिरावट का परिचायक बताने में कोई संकोच नहीं किया। यद्यपि इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों ने भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आत्म विश्वास को कुछ हद तक प्रभावित किया हो परंतु आज भी देश में दूसरे राजनीतिक दलों के पास उनके कद का कोई राजनेता नहीं है। न केवल भाजपा अपितु केंद्र की भाजपा सरकार में उन्हें कोई चुनौती नहीं है । पूरी सरकार और समूची भाजपा उनके पीछे खड़ी है।
प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल के प्रारंभिक कुछ माहों में उनकी सरकार ने जो ऐतिहासिक फैसले किए उनके माध्यम से प्रधानमंत्री ने यह भी सिद्ध कर दिया था कि इस तरह के फैसले लेने की इच्छा शक्ति और साहस ही उनके अंदर कोई कमी नहीं है। मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही यह संकेत दिए थे कि अपने इस कार्यकाल में वह मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ की सदियों पुरानी कुप्रथा से मुक्ति दिलाने तथा जम्मू-कश्मीर को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उसे विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के विवादास्पद अनुच्छेद 370 का निष्प्रभावीकरण करने के कृत-संकल्प है। इन दोनों विषयों से संबंधित कानून बनाने के बाद मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून बनाने के बाद जब सरकार आत्म विश्वास से होकर सबका साथ सबका विकास की राह में तेजी से कदम बढ़ाने के लिए तत्पर हो चुकी थी तभी कोरोना की पहली लहर ने देश में दस्तक दे दी जिसके प्रकोप को काबू में लाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने देश व्यापी संपूर्ण लाक डाउन का कठोर और साहसिक फैसला किया जिसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी उनकी सराहना की।लाकडाउन के दौरान ही प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के शुभारंभ की घोषणा की । स्वदेशी आंदोलन को प्रोत्साहित करने कीदिशा में मोदी सरकार का यह ऐतिहासिक कदम था।अयोध्या में गत वर्ष 5अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्री राम मंदिर निर्माण के शुभारंभ हेतु जब अपने कर-कमलों से पुनीत भूमि पूजन किया वह निःसंदेह उनके राजनीतिक जीवन का सबसे अनमोल पल था। मोदी को निश्चित रूप से उन पलों में स्वयं के सौभाग्यशाली होने की अनुभूति हुई होगी। यह भी एक सुखद संयोग था कि अयोध्या में राम मंदिर भूमि पूजन समारोह के अवसर पर सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी अपनी सद्भावनाएं व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं किया। अयोध्या में संपन्न इस अविस्मरणीय आयोजन ने प्रधानमंत्री मोदी को सारे देश वासियों की सराहना का हकदार बना दिया। देश में अब यह आम धारणा बन चुकी है कि सदियों पुराने विवाद के सुखद पटाक्षेप में प्रधानमंत्री मोदी की अद्भुत इच्छा शक्ति और अटूट आस्था की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल की दूसरी साल गिरह के अवसर पर इन उपलब्धियों के लिए निःसंदेह उन्हें साधुवाद दिया जाना चाहिए । अगर इस समय देश कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका का सामना नहीं कर रहा होता तो मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी इस समय हर्षोल्लासपूर्ण आयोजनों में व्यस्त होती। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी कार्यकर्ताओं को ऐसे आयोजनों के बदले उन बच्चों की सहायता करने के लिए कहा है जिनके अभिभावकों को कोरोनावायरस नेअसमय ही मौत की नींद सुला दिया है। नड्डा का यह फैसला स्वागतेय है लेकिन केवल इतना पर्याप्त नहीं है। मोदी सरकार और पार्टी नेतृत्व के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भयावह कोरोना संकट ने जिन परिवारों को तबाही की कगार पर ला खड़ा किया है उनके पुनर्वास की शीघ्रातिशीघ्र व्यवस्था कैसे की जाए। जिन परिवारों के सदस्यों को समुचित चिकित्सा सुविधाओं और आक्सीजन ,रेमेडेसिविर इंजेक्शन आदि की कमी और कुप्रबंधन के कारण अपने प्राण गंवाने पड़े हैं उनका सरकार में भरोसा टूट रहा है। देश में कोरोना की पहली लहर के दौरान प्रधानमंत्री ने अपने जिन संबोधनों के माध्यम से देश वासियों का मनोबल कभी टूटने नहीं दिया उन संबोधनों की आज पहले से अधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है।कोरोना की यह लहर जब कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है तब लोग निश्चिंत नहीं हैं। वैज्ञानिक और चिकित्सा विशेषज्ञ कोरोना की तीसरी लहर की चेतावनी दे चुके हैं। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि कोरोना की तीसरी लहर के लिए अभी से चाक चौबंद व्यवस्था करें। ब्लैक फंगस की चुनौती भी मुंह बाए खड़ी है। सरकार ने बड़े जोर शोर से टीका उत्सव शुरू किया था परंतु शीघ्र ही टीकों की कमीकी खबरें सामने आने लगीं। यह संतोष की बात है कि अब टीकों का आयात किया जा रहा है परंतु सरकार को एक निश्चित नीति बनानी होगी ताकि टीकाकरण का कार्य क्रम अभाव गति से चलता रहे।अब जबकि यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि देश में कोरोना की तीसरी लहर अवश्यंभावी है तब देश में जल्दी से जल्दी टीकाकरण का लक्ष्य अर्जित करना ही इस संकट पर काबू पाने का सर्वोत्तम उपाय है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोरोना की भयावह चुनौती ने सरकार के आत्मविश्वास को डगमगा दिया है और जिस सरकार का अपना खुद का आत्मविश्वास डगमगा गया हो उसके लिए जनता का विश्वास कायम रखना और भी बड़ी चुनौती है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के तीन वर्ष अभी बाकी हैं और वह यह सोचकर राहत महसूस कर सकती है कि तीन साल बाद परिस्थितियां बदल चुकी होंगी आज वैज्ञानिक यह आशंका जता रहे हैं कि कोरोना अगले तीन साल तक हमारी चिंता का कारण बना रहेगा। अगर यह स्थिति बनी रहती है तो तीन साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी की करिश्माई लोकप्रियता की अग्नि परीक्षा होना तय है। सरकार को उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अभी से प्रयास करना होंगे । इतना तो तय है कि अपनी करिश्माई लोकप्रियता के बल पर भाजपा को लगातार दो बार शानदार बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने वाले प्रधानमंत्री इतनी जल्दी हार मानने वाले राजनेता नहीं हैं। उन्हें यह भी भली भांति ज्ञात है कि बिखरे हुए विपक्ष के पास उनके कद का कोई नेता नहीं है ।
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं डिज़ियाना मीडिया समूह के सलाहकार है)
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