भविष्य की आहट / रवीन्द्र अरजरिया रोकना होंगे मानवता के विरुध्द शक्ति के प्रयोग
मानवीय संस्कृति पर निरंतर संकट के बादल मडरा रहे हैं। चीन की सरजमीं से जैविक युध्द का होने वाला शंखनाद अब कोरोना की तीसरी लहर के रूप में सामने है तो अमेरिकी सेना की वापसी के साथ ही अफगानस्तान पर तालिबान का कब्जा होता जा रहा है। अनेक देश तालिबान के साथ खडे हैं। विश्व मंच पर मौत का छाया है सन्नाटा। कथित चौधरियों की जुबान तालू से चिपक गई है। मानवता के विरुध्द बल का प्रयोग करने वाले स्वयं के अह्म की संतुष्टि के लिए जुल्म करने से नहीं बाज नहीं आ रहे हैं। विस्तारवादी नीति और तानाशाही परम्परा ने शक्ति की दम पर दुनिया को झुकाने की ठान ली है। गुलामों की फौज तैयार करने का मंसूबा रखने वाले परमसत्ता की शिक्षाओं को भूल गये हैं। धर्म की मनगढन्त व्याख्यायें करके लोगों को आत्महत्या के लिए प्रेरित वाले जहां प्रत्यक्ष आतंकवाद का विस्तार कर रहे हैं वहीं आर्थिक और सैन्य बल के आधार पर दादागिरी करने वाले भी अभिवादन की परम्परा को लाल सलाम में बदलने में लगे हुए हैं। कहीं जमीन के टुकडों पर कब्जा जताने वाले लहू से इबारत लिख रहे हैं तो कहीं जयचन्दों की चालें नित नये गुल खिला रहीं हैं। दुनिया के हालात तो पश्चिम से लेकर पूर्व तक और दक्षिण से लेकर उत्तर तक बद से बद्दतर हो रहे हैं। देश की आंतरिक दशा को षडयंत्रकारियों ने सुलगते ज्वालामुखी के मुहाने पर पहुंचा दिया है। विज्ञान के लिए शिक्षक का दायित्व निभाने वाली वैदिक संस्कृति पर होने वाले हमलों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। एक ओर मुसलमानों को हिन्दुओं से लडवाने की चालें चलीं जा रहीं है। कश्मीर से वहां के मूल निवासी हिन्दुओं को भगा दिया गया। तो दूसरी ओर लाल विचारधारा के संरक्षकों ने हिन्दुओं को हिन्दुओं से लडवाने का धरातल मजबूत कर लिया है। नक्सलवाद से लेकर पालघर तक की घटनायें इसकी साक्षी हैं। कथित बुध्दिजीवियों की जामत अपने दूरगामी षडयंत्र के तहत काम कर रही है। इस सब के पीछे है हमारे देश के संविधान का संरचनात्मक स्वरूप। जो काम बाह्य आक्रांता नहीं कर पाये, वह काम बहुत ही शान्ति से हमारे ही देश के जयचन्दों ने कर दिया था। संविधान यानी देशभक्ति की कसौटी, कानूनी मजबूरी और नैतिकता का पुकार। इन सब के लिए बाध्य है तो केवल देश का मध्यमवर्गीय मूल निवासी। उच्चवर्गीय के पास उनकी वकालत करने वालों की फौज खडी होती है, जो उनके प्रत्येक असंवैधानिक काम को संविधान की व्याख्या करके कानून के दायरे में ले आती है। निम्नवर्गीय तो वास्तव में कोई बचा ही नहीं है परन्तु कथित निम्नवर्गीय व्यक्ति के पास बेचारगी और अनजानेपन का अभेद कवच है। तिस पर वोट बैंक की राजनीति करने वाले दलों का साथ। यह अलग बात है कि दलों के आदर्शों की व्याख्यायें भी देश के संविधान की तरह ही लचीली है, जो देश, काल और परिस्थितियों के साथ हमेशा बदलती रहतीं हैं। ऐसे दलों के आदर्र्शों और सिध्दान्तों के मोहजाल में फंसकर लोग सदस्यता लेकर भीड के बल का अहसास करने लगते हैं। सेवा के परिणाम पर मेवा की चाह रखने वालों को कालान्तर में दलों के आकाओं की तानाशाही झेलना पडती है। पदों से लेकर टिकिट देने तक के मापदण्ड अब सहयोग, सेवा और समर्पण से हटकर पैसा, पहुंच और पहचान तक पहुंच गई है। आयातित लोगों का वर्चस्व बढता जा रहा है। व्यक्तिगत हितों के लिए सिध्दान्तों को दर किनार करके दल बदलने वालों को मलाई चटाने का दौर तेज हो गया है। क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने की बागडोर गैरक्षेत्रीय व्यक्ति के हाथों में सौंपने का फैशन चल निकला है। ऐसे थोपे गये नेतृत्व को स्वीकारने वालों की भी कमी नहीं है। प्रचण्ड बहुमत से जिताया जाता है ताकि विजयी प्रत्याशी की दया पर लाभ कमाया जा सके। ऐसे में षडयंत्र के तहत अनेक दलों में लाल विचारधारा के लोगों ने घुसपैठ करके खासी पकड बना ली है। एक पुराने राजनैतिक दल में तो बिना उनकी इजाजत के पत्ता भी नहीं खडकता। पुराने कार्यकर्ताओं को पार्टी के शीर्ष नेताओं तक पहुंचने में बाधा बनने वाले इन लोगों ने किन्हीं खास कारणों से अपना स्थान सुरक्षित कर रखा है। किस्तों में कत्ल होती यह पार्टी आज अपने अस्तित्व की लडाई लड रही है। चारों ओर स्वार्थ, षडयंत्र और व्यक्तिगत लाभ का तांडव हो रहा है। वैभव के तले ठहाके लगाने वालों के हुजूम अब गांव की चौपाल से लेकर विश्वमंच तक देखे जा सकते हैं। ऐसे में रोकना होंगे मानवता के विरुध्द शक्ति के प्रयोग अन्यथा लाशों पर हुकूमत करने वालों के मंसूबे पूरे हो जायेंगे। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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