भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया आखिर सैंडविच बन कर रह गया है टीकाकरण
कोरोना की तीसरी लहर की दस्तक सुनाई देने लगी है। सरकारें लोगों को जागरूक करने के नाम पर तरह-तरह के प्रयोग कर रहीं हैं। कहीं एनजीओ को प्रचार-प्रसार का जिम्मा सौंप दिया गया है तो कहीं सरकारी अमला ही बडे बजट का उपयोग कर रहा है। महानगरों से लेकर कस्बों तक में होडिंग लगाई गई हैं। अनेक ऐप बनाकर उन्हें जोरशोर से लांच किया गया है। इनमें से अनेक ऐप तो प्रत्येक मोबाइल में अनिवार्य भी किये गये हैं। वास्तविकता तो यह है कि मौत के डर से लोग स्वयं टीका लगवाने के लिए केन्द्रों पर पहुंच रहे हैं, जहां स्थानीय अमला सरकारी घोषणाओं को दर किनार करके मनमानी करने पर उतारू है। आनलाइन स्ड्यूल बुक कराने वाले और बिना स्ड्यूल के पहुंचने वाले लोगों को एक ही लाइन में डंडे के बल पर लगाया जा रहा है। निर्धारित समय के स्ड्यूल का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। पहली डोज और दूसरी डोज वालों को भी एक ही लाइन खडा कर दिया जाता है। भारत सरकार के ऐप के माध्यम से दी जाने वाली व्यवस्था धरातल पर आकर धराशाही होती जा रही है। सिरेंज में दवा की मात्रा का सही माप न करने, ट्रेनीज़ नर्सों से टीका लगवाने, केन्द्रों को देर से खोलने, सोशल डिस्टैंसिंग न रखने, मास्क न लगाने जैसी अनेक शिकायतें रोज सुनने को मिल रहीं हैं। दूसरी ओर टीकाकरण की सटीक व्यवस्था हेतु निरीक्षण करने वाले अधिकारियों की एक बडी टीम भी वाहन के साथ दस्तावेजों में उपलब्ध रहती है। यह सारा तामझाम केवल आंकडों की बाजीगरी तक ही सीमित रह गया है। वर्तमान में लोगों की जो भीड टीकाकरण के लिए उमड रही है वही सब्जी मण्डी, मांस मण्डी, गल्ला मण्डी, बस स्टैण्ड, मॉल, शापिंग काम्लेक्स, ग्रामीण क्षेत्रों की बसों आदि में कोवोड नियमावली की सरेआम धज्जियां भी उड रहीं हैं। मुफ्त में मिलने वाले राशन के लिए वैक्सीन जरूरी होने के कारण भी लोगों ने इस ओर रुख किया है किन्तु एक खास वर्ग आज भी वैक्सीन सहित सभी सुरक्षात्मक उपायों को दरकिनार किये हुए है जिस पर कडी कार्यवाही करने से प्रशासन भी कतराता है। तीसरी लहर का प्रकोप अभी महानगरों और कुछ क्षेत्र विशेषों तक ही सीमित हो परन्तु उसके तेजी से फैलने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस महामारी के कथित विशेषज्ञों की नित नई दलीलें सामने आ रहीं है। नवीन अविष्कारों और टीकाकरण के प्रभावों की फेरिस्त लम्बी होती जा रही है। कोरोना पर होने वाली बहस पर राजनैतिक ग्रहण तो रोज ही लगते है। आरोपों-प्रत्यारोपों के मध्य गर्मागर्म संवाद और असभ्य भाषा का प्रयोग, कथित विशेषज्ञों के व्दारा परोसे जाने से शालीन सभ्यता का हाशिये पर पहुंचना प्रमाणित हो जाता है। टीका के पहले और दूसरे डोज के मध्य के अन्तराल पर विशेषज्ञों के बदलते निर्देश लोगों के मन में शंकायें पैदा करने लगे हैं। आम आवाम के हितों के लिए दम भरने वाली सरकारें अपने राजनैतिक हित साधने में लगीं हैं। केन्द्र और अनेक राज्य सरकारों के मध्य कभी फोटो को लेकर रस्साकशी होने लगती है तो कभी वास्तविक स्थिति छुपाकर आवश्यकता से अधिक सुविधाओं की मांग का मुद्दा गर्माने लगता है। महामारी के दौर से गुजर रहे देश में पक्ष-विपक्ष का एक जुट न होना, इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि सत्ता के लिए लोगों की जान की कीमत बेहद सस्ती है। किसान आंदोलन के नाम होने वाला विरोध भी महामारी पर भारी पड रहा है। जिस संविधान की दुहाई देकर अधिकारों का आइना दिखाया जाता है, उसी संविधान को मानने वालों की जान से खिलवाड भी किया जा रहा है। वैक्सीन के मुद्दे को काण्ड में बदलने की मुहिम में जहां विपक्ष जी-जान झौंके दे रहा है वहीं सरकारें स्वयं को पाक-साफ साबित करने में जुटीं है। सरकारों की खींचतान और अधिकारियों की मनमानियों के मध्य आखिर सैंडविच बन कर रह गया है टीकाकरण। ऐसे में अव्यवस्थाओं के चक्रव्यूह को तोडे बिना आम आवाम तक सुविधाओं की सौगात पहुंचना असम्भव नहीं तो बेहद कठिन जरूर है। आज देश को एक साथ खडे होकर कोरोना के अस्तित्व को समाप्त करते हुए विकास के नये रास्ते खोजने होंगे तभी सब कुछ सामान्य हो सकेगा अन्यथा आर्थिक संकट के बादलों का तांडव होना लगभग सुनिश्चित है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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