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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया धर्म की आड में सियासत का खेल

 जीवन के सत्य को स्वीकारने के लिए समसामयिक परिस्थितियों की भूमिका बेहद महात्वपूर्ण होतीं है। वर्तमान में अफगानस्तान के हालातों ने जहां विश्व के आम लोगों को चौंका दिया है वहीं अमेरिका की नीतियों और नियत पर एक बार फिर समीक्षाओं का दौर चल निकला है। नोटो की भूमिका पर प्रश्न चिंह अंकित होने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ को भी अफगाकियों की चीखें सुनाई नहीं दे रहीं है। रूस, चीन जैसे राष्ट्र तालिबान को मान्यता देन-दिलाने में ही नहीं बल्कि पूरा सहयोग करने में जुटे हैं। अमेरिका का समर्थन तो उसे पहले ही एग्रीमेन्ट के तहत मिल चुका था। बाकी के देश भी आतंक के ठहाके के मध्य सहमे हुए हैं। लोग खामोशी से तालिबान के अगले कदम की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उसकी घोषणाओं पर एकाग्र हैं और सुखद भविष्य के लिए दुआयें मांग रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि स्वयं की परिधि से बाहर न तो देश निकले हैं, और न ही लोग। जब किसी देश पर कोई सक्षम दल आक्रमण कर देता है, तब ही वह मानवता की दुहाई का शोर मचाने लगता है। बाकी के समय में आंखों के सामने हो रहे जुल्म पर भी आंखें फेरकर बांसुरी बताता है। यही हाल लोगों का है। पडोसी पर होते अत्याचार पर खामोश रहने वाले स्वयं के उत्पीडन पर हाय-तोबा मचाने लगते हैं। आंकडों के आधार पर तालिबानियों की संख्या अफगानी सेना से बहुत कम थी, ऊंचे मनोबल के साथ यदि वह लडती तो निश्चय ही तालिबानी नस्तनाबूत हो जाते। अगर अफगान की आवाम आतिताइयों के विरुध्द एकजुट होकर खडी हो जाती तो तो हथियारों का जखीरा और आतंक की इबारत दौनों ही रसातल में चले जाते। मगर आत्मविश्वास की कमी, राष्ट्रभक्ति का अभाव और समर्पण की शून्यता के कारण ही मुट्ठी भर लोगों ने मनमानियों का तांडव मचा रखा है। ऐसा ही तांडव कभी हिन्दुस्तान में भी गजनी, गौरी जैसे लुटेरों नें मचाया था। तब पुरुषार्थ करने के स्थान पर भगवान के सहारे सोमनाथ को छोडने वालों की पीठें, चाबुकों की मार से लुटेरों ने लाल कर दीं थीं। ऐसा केवल हिन्दुस्तान या अफगानस्तान में ही नहीं हुआ बल्कि कफन बांधकर निकले लुटेरों ने अनेक देशों को अपने जुल्म का शिकार बनाया। कारण केवल इतना ही था कि हम स्वयं तक सीमित होकर रह गये। शासन, शासक और शासित को अलग-अलग मानते रहे, जबकि वास्तविकता तो यह है कि वे जिस व्यवस्था को बनाने हेतु चन्द लोगों को पूर्णकालिक बनाया जाता हैं  हम भी उसी व्यवस्था के अंशकालिक अंग हैं। जब तक ऐसी सोच, मनोभूमि और विचार स्थाई रूप से स्थापित नहीं हो जाते, तब तक आतंक जैसे शब्दों को विश्वकोश से हटाया नहीं जा सकता। हमें स्वयं की परिधि से बाहर निकलना होगा। पूरे राष्ट्र ही नहीं बल्कि पूरी सृष्टि को स्वयं में निहित मानना होगा तभी इस तरह की समस्याओं से निदान हो सकेगा। इस संदर्भ में वैदिक ग्रंथों का व्यवस्थायें स्वमेव ही समाचीन हो जातीं है। पेडों की पूजा, नदियों को मां, पर्वतों को गिरिराज, पशुओं का पालन, पक्षियों के दर्शन को शुभ, पडोसी को परिजन और आगंतुक को भगवान के रूप में स्वीकारने  जैसी अनगनित मान्यतायें हमारे पुरातन साहित्य में भरी पडी है। मगर हमने ही विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित होने के बाद आत्म चिन्तन को तिलांजलि दे दी थी। कालान्तर में वसुधैव कुटुम्बकम् का अवधारणायें संचय की प्रवृति और शोषण की मानसिता में बदल गई। चापलूसी और चाटुकारिता से भौतिक संसाधन जुटाने वाले लोग स्वजनों-परिजनों की परिधि से बाहर ही नहीं निकल पाये। जयचन्द जैसें का बाढ में राष्ट्रीय आदर्श कहीं बह से गये। अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक पू्ज्यवर पंडित श्रीराम शर्मा जी ने एक नारा दिया था कि हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा। इस नारे के साथ एक लाइन जोडना आज आवश्यक हो गई है कि हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा की गूंज के बाद कब सुधरोगे भी स्वयं से पूछना होगा तभी सकारात्मक परिणाम सामने आ सकेंगे। अन्यथा दूसरों को उपदेश देने वाले स्वयं उनका अनुशरण न करके शिक्षक-परीक्षक जैसे पदों पर स्वयं आसीत हो जाते हैं। मानवता के नाम पर मनमानी करने वाली चालें हमेशा से ही चली जातीं रहीं है। अधिकांश देश इस दिशा में कीर्तिमान बनाने की होड में लगे रहते हैं जब कि उन्हीं के देश में नागरिकों पर खासी पाबंदिया लगी होतीं है, मानवाधिकार की खुले आम धज्जियां उडाई जातीं हैं और किया जाता है लोगों पर जुल्म। इन सब के बाद भी वह दूसरों के घरों में झांक कर चौधरी बनने की फिराक में हमेशा रहते हैं। ऐसे देशों की संख्या में गत दिनों खासी बढोत्तरी हुई है। अफगानस्तान के हालातों में भविष्य की आहट स्पष्ट सुनाई दे रही है। हथियार, ताकत और कुटिलता की दम पर आंतकियों का बोलबाला पूरी दुनिया में होने वाला है। धर्म की आड में सियासत का खेल खुलकर खेला जा रहा है। प्रजातंत्र, जनतंत्र, लोकतंत्र, गुटनिरपेक्ष, धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द बोलने वालों को कट्टरता के विरुध्द मानवता के लिए

एक जुट होना चाहिए, अन्यथा कट्टरता का दावानल दहाडता हुआ एक-एक करके समूची सभ्यता को अपने आगोश में ले लेगा और हम केवल ऊपर बाले से सलामती की दुआ मांगते रहेंगे। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि ऊपर वाला भी उसी की मदद करता है जो स्वयं की मदद करता है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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