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भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया छोडना होगी विभाजन की मानसिकता

  देश में दासताकालीन मनमाने निर्णयों को लागू करने का  प्रचलन अभी बंद नहीं हुआ है। तालिबानी फरमानों की तर्ज पर केन्द्र के भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक पत्रकार वार्ता के दौरान पत्रकारों को टोल प्लाजा पर शुल्क मुक्त यात्रा की सुविधा न देने की घोषणा करते हुए आदर्शों का बखान कर डाला। वे पत्रकारों की ओर टोल पर नि:शुल्क प्रवेश के निवेदन पर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अच्छे रोड का उपयोग करना है तो टोल जरुर देना होगा। यह एक अच्छी पहल है परन्तु इसकी सीमा में राजनेताओं के काफिले, वेतन और सुविधायें पाने वाले जनप्रतिनिधि, सरकारी बजट का उपयोग करने वाले अधिकारी जैसे लोगों को नहीं लिया गया है। जिनके पास जनता के टैक्स से जमा किये गये पैसों से बडे-बडे बजट आते हैं, विभिन्न मद होते हैं, भारी भरकम यात्रा बिल लगाये जाते हैं, उस सभी को छूट देने का प्राविधान है। एक देश में एक कानून लागू न करके उसमें श्रेणी विभाजन कर दिया गया है। यानी कि सरकारी अधिकारी, राजनेता, जनप्रतिनिधियों जैसे लोगों को मिलाकर एक अलग वर्ग का निर्माण कर दिया गया है। इस वर्ग के अनेक लोगों के वाहनों में अनाधिकृत रूप से सायरन भी लगा होता है जिसकी आवाज दूर से ही सुनकर टोल गेट खुल जाते है। एक-एक विधायक और सांसद के अनेक वाहनों पर उनके पदनाम की पट्टिका चमकती दिखती है, जिस पर उनके क्षेत्र का नाम भी अंकित नहीं होता यानी कि जिस क्षेत्र में गये वहीं के विधायक या सांसद हो गये। इन अनेक वाहनों का उपयोग जनप्रतिनिधियों के परिजन-स्वजन धडल्ले से कर रहे हैं। सरकारी वाहनों की बात तो और भी निराली है। इन वाहनों के रखरखाव पर तो एक बडी धनराशि खर्ज होती है। बात पत्रकारों के लिए टोल फ्री होने की नहीं है, बल्कि देश में दो तरह की व्यवस्था की है। इस दिशा में कभी भी प्रयास नहीं हुआ कि सम्पूर्ण देश में एक कानून लागू हो जो सभी पर सामान्य रूप से प्रभावी हो। कभी जाति के आधार पर कानून बना दिये गये तो कभी क्षेत्र के आधार पर। कभी जनसंख्या के आधार पर तो कभी अतीत के आधार पर। कुल मिलाकर विभाजन करके सत्ताधारियों ने अपनी वोट बैंक की राजनीति को ही पोषित किया है। ऐसे लोगों को स्वयं सरकारी तंत्र में काम करने वालों पर विश्वास नहीं है। तभी तो सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों तक के बच्चों के दाखिले ख्याति प्राप्त निजी संस्थानों में होते हैं, उनके परिवार का इलाज सुविधा संपन्न निजी चिकित्सालयों में होता है।


                    लोक के इस तंत्र के समक्ष आज एक प्रस्ताव रखने का मन हो रहा है। देश के सभी सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों-राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा और उनके परिवारजनों का सरकारी अस्पतालों में इजाज अनिवार्य कर दिया जाये। ऐसा न करने पर उन्हें अपने पद पर बने रहने की पात्रता स्वमेव समाप्त हो जाये। इस प्रस्ताव को पढने के बाद ही केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकारों तक के माथे की लकीरें गहरा जायेंगी। सरकारी अधिकारियों से लेकर राजनैतिक खेमों में हलचल मच जायेगी। इन उत्तरदायी लोगों को जब सरकारी स्कूलों की पढाई से स्वयं के बच्चों का भविष्य उज्जवल नहीं दिखता, सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों की योग्यता पर विश्वास नहीं है तो फिर उन पर देश के मेहनतकश लोगों की कमाई के अंश को क्यों जाया किया जा रहा है। जो लोग आम नागरिकों की कमाई में से मिलने वाले टैक्स पर जीवकोपार्जन कर रहे हैं, उन्हें अपने ही बनाये हुए तंत्र की योग्यता पर विश्वास नहीं हैं।


                    देश में जब तक वर्ग विभाजन होता रहेगा तब तक सभी में एक दूसरे प्रति सम्मान का भाव जागना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। योग्यता, प्रतिभा जैसे गुणों से दायित्वबोध होना चाहिए न कि अह्मबोध। जनप्रतिनिधि बनने के पहले और बाद के आचरण, अधिकारी की कुर्सी मिलने के पहले और बाद का व्यवहार और उच्चतम संबंध बनने के पहले और बाद के संवाद बिलकुल बदले हुए होते हैं। नम्रता, सरलता और सौम्यता जैसे गुणों का तत्काल लोप हो जाता है। एक ओर सरकारी दस्तावेजों में जाति विवरण मांगा जाता है। दूसरी ओर जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर अपराध पंजीकृत हो जाता है। एक ओर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भेद पैदा किया जाता है तो दूसरी ओर सभी को सौहार्दपूर्ण व्यवहार करने की शिक्षा दी जाती है। यह सारी स्थितियां स्वाधीनता के पहले भी थीं और आज भी हैं। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप शक्ति सम्पन्न लोगों ने सत्ता पर काविज बने रहने के लिए अपने-अपने सिध्दान्त थोपे और बन गये पूरे समाज के ठेकेदार। सरलता से जीवकोपार्जन की राह पर चलने वाले निरीह लोगों ने असहज होकर सब कुछ स्वीकार किया। इन स्वीकार करने वाले कुछ लोगों ने जागरूकता दिखाई तो उन्ही शक्ति संपन्न लोगों ने उन्हें भी एक टुकडा पकडाकर खूंटे से बांधने का प्रयास किया। ऐसे देश समान आचार संहिता लागू करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। जिस प्रस्ताव की हम बात कर रहे हैं उसे पढते ही कथित ठेकेदारों, उत्तरदायी अधिकारियों और अह्म पोषित लोगों की आंखें धुंधला देखने लगेंगी। आखिर  लोक के तंत्र को स्वयं की व्यवस्था पर ही विश्वास करना होगा और छोडना होगी विभाजन की मानसिकता। तभी देश एक सूत्र में बंध सकेगा और विकास के नये सोपान भी तय कर सकेगा। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।


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