भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया विपत्ति की घडी में होगी क्वार्ड की अग्नि परीक्षा
विश्वमंच पर भारत हमेशा से ही चर्चित रहा है। कभी वैदिक परम्पराओं को लेकर तो कभी आधुनिक तकनीक के कारण। कभी मानवीय क्रिया-कलाप सुर्खियों में रहे तो कभी आतंकवाद के विरुध्द मुखरित प्रतिक्रियायें प्रमुखता के साथ उभरीं और अब अमेरिका में आयोजित की गई क्वार्ड बैठक पर पूरी दुनिया नजरें गडाये है। यूं तो यह एक अनौपचारिक संगठन है परन्तु इसे सैन्य गढबंधन की तरह भी देखा जा रहा है। खासतौर पर भारत-प्रशान्त क्षेत्र में मुक्त और खुले वातावरण की स्थापना को लेकर किये गये निर्णयों पर समीक्षाओं का दौर चल निकला है। चीनी उत्पादनों का विकल्प तलाशा जा रहा है। कोरोना महामारी के स्थाई समाधान पर प्रयास हो रहे हैं। नवीन तकनीकों के विकास पर सांझा कोशिशों पर बल दिया जा रहा है। शक्ति के आधार पर तानाशाही करने वालों पर नकील कसने हेतु रणनीति तैयार की जा रही है। आतंकवाद को संरक्षण देने वाले राष्ट्रों पर प्रतिबंध लगाने पर भी विचार किया जा रहा है। ऐसे ही अनेक मुद्दों को क्वार्ड देशों की बैठक में उठाया गया। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन, आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्काट मारिसन, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा तथा भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बैठक में संगठन के मूल उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्रयास तेज करने पर बल दिया। श्री मोदी ने तो यहां तक कह दिया कि यह संगठन वैश्विक भलाई के लिए एक ताकत के रूप में काम करेगा। इस वक्तव्य को लेकर अनेक देशों के माथे पर बल पैदा हो गये। क्वार्ड शब्द को क्वाड्रिलेटेरल से आयातित किया गया है जिसका अर्थ होता है चतुर्भुज। जिसके प्रत्येक कोने पर एक-एक देश बैठा है। वैदिक साहित्य में चतुर्भज का अर्थ सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु से निकाला जाता है जो कल्याण के देवता हैं, अन्याय के उपचारक हैं और है दण्ड के निर्धारक। इस कारण भी संगठन का शब्दबोध शक्ति का परिचायक बनता है। अतीत गवाह है कि चौबीस मुस्लिम देशों ने एक जुट होकर ओआईसी यानी आर्गेनाइजेशन आफ द इस्लामिक कान्फ्रेंस के गठन का आधार रबात (मोरक्को) में १९६९ में शिखर सम्मेलन के दौरान तैयार किया था और १९७० में विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद मई १९७१ में जेद्दा (सउदी अरब) में हुई। सन् १९७२ में इस संगठन के चार्टर को अपनाया गया। इस राष्ट्रों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर कभी चर्चा नहीं हुई। उन पर होने वाले जुल्मों को काफिर बताकर जायज करार दे दिया जाता है। तब लोकतंत्र की दुहाई और समानता का राग अलापने वालों ने मुंह पर कपडा क्यों बांध जाता है। आज स्वयं के देश में मानवाधिकार का उलंघन करने वाले जब दूसरे राष्ट्र हेतु मानवाधिकारों की दुहाई देने लगते हैं तब उन्हें न तो शर्म आती है और न ही कोई शक्तिशाली विकसित राष्ट्र उन्हें आइना दिखाता है। इस बार जब क्वार्ड का बैठक हुई तब संयुक्त राष्ट्र महासभा में जनबूझकर पाकिस्तान ने कश्मीर को अन्तराष्ट्रीय मंच पर उछालना शुरू कर दिया। मगर भारत की फस्र्ट सिकेटरी स्नेहा दुबे ने उन्हें मुंह तोड जबाब दिया। स्नेहा को काउन्टर करने के लिए पाकिस्तान ने जानबूझकर नेत्रहीन अधिकारी सायमा सलीम को उतारा ताकि उसे सहानुभूति मिल सके। लोकतंत्र के आधार पर संचालित मानवीय राष्ट्रों में अल्पसंख्यकों के नाम पर जिस तरह से हल्ला मचाने का क्रम जारी है, उस पर ठेकेदार बने विकसित देश मूक दर्शक बनकर हथियारों को बेचने हेतु अवसर की तलाश कर रहे हैं। ऐसे में क्वार्ड की बैठक के मायने ज्यादा गम्भीर हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा में मानवता का राग अलापने वाले स्वयं की तानाशाही पर रेखायें खिंचते देखकर बौखलाहट में षडयंत्र रचने लगे हैं। लोकतंत्र केवल संविधान का अंग ही नहीं है बल्कि मानवीयता की दुहाई है, समानता का अधिकार है, एकता का संबल है। जो इस्लामिक राष्ट्रों में जमींदोज कर दिया गया है। स्वाधीनता के बाद जब पाकिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र घोषित किया गया तब हमारे देश के कथित ठेकेदारों नें अपने गोरे आकाओं की मंशा के अनुरूप धर्म निरपेक्षता का मुखौटा ओढ लिया। अल्पसंख्यक होने की विना पर विशेषाधिकार दिये, संरक्षण के नाम पर व्यवस्था दी और वोटबैंक की राजनीति पर अतिरिक्त सुविधाओं का पिटारा खोल दिया। बस फिर क्या था। आने वाली सरकारों ने, राजनैतिक दलों ने और चर्चित होने की आकांक्षा रखने वालों ने इसी मार्ग का अंधा अनुशरण करना शुरु कर दिया। देश के विस्फोटक हो रहे हालातों से निपटने के लिए कभी भी दूरगामी योजनायें नहीं बनाई गई, सार्थक परिणाम वाली कार्य पध्दति नहीं अपनाई गई और न ही कभी किये गये इस दिशा में सार्थक प्रयास। केवल और केवल वोट बैंक पर ही नजरें गडाये रहने वालों ने हमेशा ही फूट डालों-राज करो की नीति अपनाई। यही अंतराष्ट्रीय मंच पर होता रहा। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र महासभा जैसे संगठनों से सुर्खियां तो बटोरी जा सकती हैं मगर परिणामजनक स्थितियां निर्मित होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। अफगानस्तान की निरीह जनता की करुणामयी चीखों पर विश्व व्यापी मौन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। रही बात क्वार्ड की, तो उसका परिणाम तो आने वाला समय ही बतायेगा जब किसी सदस्य देश पर संकट के बादल मडरायेंगे। विपत्ति की घडी में होगी क्वार्ड की अग्नि परीक्षा। अभी तो केवल वाक्य युध्द का दौर ही चल पर है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी।
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