भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया असंतुष्ट कार्यकताओं को मनाने में जुटे हैं राजनैतिक दल
भारत गणराज्य के पांच राज्यों में चुनावी दुंदुभी बज चुकी है। राजनैतिक दलों ने धीरे-धीरे पत्ते खोलने शुरू कर दिये हैं। कार्यकर्ताओं के मन के अनुरूप प्रत्याशी देने की चुनौती लगभग सभी दलों के सामने है। जातिगत समीकरणों से लेकर क्षेत्रीय प्रभावों तक को तौला जा रहा है। सम्प्रदायवाद को भडकाने में लगे लोगों में से जहां ज्यादातर पर्दे के पीछे से आग लगा रहे हैं वहीं ओबैसी जैसे लोग खुलकर अपनों को लाभ देने की घोषणायें कर रहे हैं। पंजाब में तो देश को टुकडों में बांटने का जयघोष करने वाले कन्हैया कुमार और जातिगत राजनीति से सुर्खियों में आये हार्दिक पटेल तक को कांग्रेस ने चुनावी दायित्व सौंप दिये हैं। परिवार के अतीत की दुहाई पर पार्टी ने युवाओं का एकमात्र दल बनकर उभरने की कबायत शुरू कर दी है। बहुजन समाज पार्टी आज भी दलितों के वोटबैंक पर इकलौता अधिकार मानती है। वहीं समाजवादी पार्टी अपने आलाकमान के जातिगत मतों के साथ-साथ मुसलमानों के समर्थन का भी दावा कर रही है। अकाली दल का गणित भी उनकी परम्परागत विचारधारा के पोषण से जुडा दिख रहा है तो आम आदमी पार्टी ने सत्ताधारी दलों के विरोध में विकल्प बनकर स्वयं को प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। हिन्दुत्व के मुद्दे को भुनाने का सूत्र आजमान में जुटी भारतीय जनता पार्टी अपनी केन्द्र सरकार की उपलब्धियां और उत्तर प्रदेश की माफिया विरोधी छवि को उजागर कर रही है। क्षेत्रीय दलों के अपने अलग समीकरण हैं। वे स्वयं के प्रभाव को भुनाने में लगे हैं। चन्द जिलों में सिमटे ऐसे दल के मठाधीश अपने खास लोगों के साथ मिलकर बडी पार्टियों को करिश्माई जीत के सब्जबाग दिखा रहे हैं ताकि गठबंधन का लाभ मिल सके। यह सब तो पर्दे के पीछे से चल ही रहा है परन्तु दलबदल का तूफान देखकर पार्टियां अपने उम्मीदवारों की सू्चियों पर सूचियां जारी करने लगे हैं। असन्तुष्टों को समझाने, सत्ता में पहुंचते ही उन्हें मलाईदार ओहदा देने तथा अन्य लाभों के लालच का मोहपाश फैंका जा रहा है। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा ने खासतौर पर योगी की ब्राह्मण विरोधी छवि पर मरहम लगाने हेतु पिछली बार जीते ब्राह्मणों में से ज्यादातर लोगों को पुन: टिकिट दिया है। ऐसा करके काम के आधार पर सम्मान देने की नीति का प्रदर्शन करके कार्यकर्ताओं के बिखराव को रोकने की कोशिश की जा रही है। मगर समाजवादी पार्टी ने योगी के गढ से ही एक दबंग ब्राह्मण नेता को अपने खेमे में शामिल करके खासी चुनौती प्रस्तुत की है। बहुजन समाज पार्टी की खामोशी अन्दर ही अन्दर गुल खिला रही है जिसे भारतीय जनता पार्टी के लिए हितकर कदापि नहीं कहा जा सकता। भाजपा के विरोधी खेमे को अपने झंडे के नीचे एकत्रित करने में जुटी ममता ने पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ गोवा में दस्तक दी थी परन्तु समय के साथ वह एक गुबार ही साबित हुआ। पाकिस्तान के विरुध्द सर्जिकल स्ट्राइक को व्यवहारिक स्वरूप देने वाले मनोहर पर्रिकर के पुत्र उत्पल पर्रिकर ने गोवा में भाजपा से टिकिट न मिलने पर निर्दलीय चुनाव लडने की घोषणा कर दी थी किन्तु अब मनौती के बाद उनके स्वरों में बदलाव आता जा रहा है। मणिपुर के अपने मुद्दे हैं, लोगों की सोच है, और सीमापार से मिलने वाला लालच है। वहां पर चुनावी घमासान क्षेत्रीयता और सुविधात्मक मुद्दों पर केन्द्रित होकर रह गया है। अधिकारों की सुरक्षा को लेकर भी मणिपुरवासियों में खासा आक्रोश देखने को मिल रहा है। उत्तराखण्ड में जिस तरह से भाजपा सरकार ने बार-बार नेताओं के दायित्वों में हेरबदल किया, उससे ही पार्टी की घबडाहट सामने आ जाती है। तिस पर इस्लाम छोडकर वसीम रिजवा से जितेन्द्र नारायण त्यागी की पहचान प्राप्त करने वाले व्यक्ति की गिरफ्तारी ने देवभूमि की सत्ताधारी भाजपा की हिन्दुवादी विचारधारा की धज्जियां उडा दीं है। ऐसा ही काम छत्तीसगढ की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के इशारे पर बुंदेलखण्ड से गुपचुप ढंग से संत कालीचरण की गिरफ्तारी के दौरान हुआ था। यानी जो काम गांधी के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तिलांजलि देते हुए कांग्रेस ने किया था, वही काम भाजपा ने हेट स्पीच के नाम पर किया। भाजपा तो एक कदम आगे ही बढ गई और जितेन्द्र नारायण त्यागी के मुख्य समर्थक यति नरसिंहानन्द को भी सलाखों के पीछे भेज दिया। यह सारा घटना क्रम भी भाजपा की छवि को कहीं न कहीं प्रभावित जरूर करेगा। आज देश का नागरिक धर्म के निजता वाले मुद्दे और जन्म के प्रकृतिजन्य कारकों पर अंध विश्वासी हो गया है। जीवन जीने की पध्दति को धार्मिक मर्यादाओं में बदल दिया गया है। गुरुग्राम में खुले में नमाज पर चिल्ला चोट हो रही है तो कोलकता में नवरात्रि के भगवती जागरण पर हंगामा। जेहाद के नाम पर विकृतियां परोसी जा रहीं है तो प्रतिक्रियात्मक उपायों को व्यवहार में लाया जा रहा है। अतीत की दुहाई पर वर्तमान में जंग छिड रही है और ऐसे में मौका परस्त लोग अपने पौ बारह करने में जुटे हैं। वास्तविकता तो यह है कि आपसी भाईचारे और शांति को राजनैतिक दलों के लालची नेताओं और धर्म के कथित ठेकेदारों ने ही चिंगारियां दिखायीं हैं। सत्ता सुख के काल्पनिक आनन्द के लिए समाज को लडवाने वाले षडयंत्रकारी आज लोगों की मानसिक कुण्ठाओं को कुरेद-कुरेद कर घाव बनाने में जुटे हैं। इतिहास गवाह है कि देश की धरती को बाह्य आक्रान्ताओं ने जमकर लूटा, सुख भोगा और खुलकर की मनमानियां। जबरन धर्म परिवर्तन जैसे कृत्य किये गये। मगर वह सब तो इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया था। देश के लिए सुभाषचन्द बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह जैसे भारत मां के सपूतों ने जंग छेडी, तब गोरी सरकार ने चाल चलकर फूट डालो, राज करो की नीति अपनाई। इसी चाल की पुनरावृत्ति देश के विभाजन के दौरान भी की गई। जो हुआ सो हुआ। स्वतंत्रता के बाद तो देश की अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति की पुनस्र्थापना हेतु संविधान की रचना होना चाहिए थी मगर गुलामी का बोध करने वाली अंग्रेजियत हावी होती चली गई। दुनिया में ऐसे अनेक देश है जिन्होंने गुलामी के बाद स्वयं की पुरातन परम्पराओं और संस्कृति की पुनस्र्थापना की और आज विकास के नये सोपान तय कर रहे हैं। तब के षडयंत्र आज नये रूप में फल-फूल रहे हैं। वही फूट डालो, राज करो का सिध्दान्त आजमाया जा रहा है। हिन्दुओं को मुसलमानों का डर दिखाकर और मुसलमानों को हिन्दु मानसिकता वालों से भयभीत करने का क्रम निरंतर चल रहा है। तिस पर हरामखोरी की डाली जाने वाली आदतें खाज को कोढ बनाने में जुटीं हैं। राजनैतिक लाभ सर्वोपरि हो गया है। मानवीय और सामाजिक मूल्य हासिये पर पहुंच गये है। इन्हें रचनात्मक दिशा देने हेतु कुछ नया और क्रांतिकारी भरे करने की आवश्यकता है जबकि वर्तमान समय में विधानसभा के अन्दर विधायक को अपनी पार्टी लाइन पर ही काम करना होता है। व्यक्तिगत क्षमताओं के आधार पर वह क्षेत्रीय विकास को तो मूर्तरूप दे सकता है परन्तु सामान्य मुद्दों के लिए वह पार्टी के आदेशों का अक्षरश: पालन करने हेतु बाध्य होता है। ऐसे में जल्दी ही कुछ नया मिलने की संभावायें ज्यादा बलवती नहीं है मगर इस बार के चुनाव एक नये रूप मे होते जरूर दिखाई पड रहे हैं। फिलहाल तो असंतुष्ट कार्यकताओं को मनाने में जुटे हैं राजनैतिक दल। ऐसे में चुनावी सर्वेक्षणों के नाम पर एक नया खेला शुरू हो गया है, जो मतदाताओं को प्रभावित करने प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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