चुनावी घमासान में षडयंत्र के हथकण्डे का बढता कद भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
चुनावी दावपेंचों में राजनीति के अलावा कूटनीति और कुटिल षडयंत्र बढता जा रहा है। दलगल स्वार्थों से लेकर व्यक्तिगत हितों को साधने के लिए आदर्श, सिध्दान्त और मर्यादायें तार-तार होने लगीं हैं। नेताओं के मुखौटे गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं। सीटों के बटवारे पर गठबंध में कलह शुरू हो गया है। प्राण जायें पर वचन न जाई, की चौपाई का प्रेरणादायक अस्तित्व मृतप्राय हो चुका है। कल तक दल विशेष की आलोचना करने वाले लोग आज उसी की शान में कसीदे पढ रहे हैं। ओबैसी की कार पर चलने वाली गोलियों का विश्लेषण गली-कूचों से लेकर चौपाल-चौराहों तक हो रहा है। आक्रमणकारियों के कृत्यों को वास्तविकता से अधिक नाटक के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। प्राणघातक हमला हो और गाडी के अंदर एक भी छर्रा न पहुंचे। बिना ऊपरी पहुंच के एक चर्चित चेहरे को निशाना बनाया जाये और वो भी सरेआम। ऐसे बहुत सारे प्रश्न है जिन पर लोग स्वयं के ज्ञान के आधार पर उत्तर तलाश रहे हैं, अटकलें लगा रहे हैं। जातिगत आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की परम्परा को अब सम्प्रदायगत विभक्तिकरण किया जाने लगा है। जहरीले वक्तव्यों के माध्यम से वैमनुष्यता, शत्रुता और व्देष फैलाने का काम करने वाले राजनेता केवल और केवल स्वयं के हितों तक ही सीमित होकर रह गये हैं। ओबैसी का केवल मुस्लिम हितों का स्वयंभू ठेकेदार बनना, मायावती का दलितों का स्वयंभू मसीहा बनना, अखिलेश यादव व्दारा यादव जाति का स्वयंभू मुखिया बनना, टिकैत का स्वयंभू किसान नेता बनना, योगी का ठाकुरों का स्वयंभू संरक्षक बनना, जैसे कारकों को किसी भी हालत में राष्ट्रभक्ति नहीं कही जा सकता। वास्तविक राष्ट्रभक्ति के मायने तो नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जी ने गढे थे, चन्द्रशेखर आजाद ने दिये थे, सरदार भगतसिंह ने प्रदर्शित किये थे और किये थे स्थापित अशफाकउल्लाह खां ने। देश के लिए काम करने वालों के नामों पर स्वाधीनता के बाद अल्पविराम लग गया था। मगर सरदार पटेल जैसे लोगों ने काफी समय तक उस परम्परा को जीवित रखा। कुछ चिन्हित और निविवाद लोगों को छोड दें तो शायद ही आज देश के लिए कोई काम कर रहा हो, ज्यादातर खद्दरधारी तो दान-अनुदान भी फोटो खिंचाने के लिए ही देते हैं। यही फोटो तरह-तरह के संचार माध्यमों से सुर्खियां बटोरने हेतु प्रायोजित किये जाते हैं। बाद में उन फोटो, सुर्खियां बनी खबरों और प्रसारित समीक्षाओं को ही प्रदर्शनकारी अतीत बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। गरीब की सहायता नहीं बल्कि उसकी मजबूरी को स्वयं की प्रशंसा का हथियार बनाने वालों की कमी नहीं है। समाजसेवा के अर्थ निरंतर बदलते जा रहे हैं। संविधान से मिलने वाले अधिकारों के प्रति जागरूकता बढी है। कर्तव्यों को तिलांजलि देने वालों का ग्राफ आसमान छूने लगा है। कार्यपालिका में बड़ा पद पाने की योग्यता न रखने वाले लोग अपने धनबल से विधायिका में प्रवेश पाने लगे हैं। इस स्तम्भ हेतु योग्यता का मापदण्ड शून्य से आगे आज तक नहीं बढ पाया, पात्रता हेतु निर्धारण नहीं पाया और न ही अनुशासन का अनुबंध हो पाया स्थापित। तभी तो सदनों में असभ्य भाषा का प्रयोग, अशोभनीय कृत्य और संसदीय मर्यादा का चीरहरण आये दिन देखने-सुनने को मिलता है। ऐसा करने वाले जनप्रतिनिधियों से उनके क्षेत्र के लोग भी स्पष्टीकरण नहीं मांगते। वे सदन की गरिमा का दाह संस्कार करके ठहाके लगाते हुए क्षेत्र में जाते है और चाटुकारों की फौज उनके इस आपराधिक कृत्य पर उनके गुणगान करके दबंग नेता का तमगा देने को उतावली हो जाती है, मालाओं से स्वागत होता है, अभिनन्दन पत्रों का वाचन होता है और फैलाई जाती है उनकी यशकीर्ति। हम हर बार ऐसे ही जनप्रतिनिधियों को चुनकर पुन: केन्द्र से लेकर प्रदेश होते हुए ग्राम पंचायतों तक में भेज देते हैं और बाद में यूं ही मौन होकर बैठ जाते हैं। परिणाम सामने है कि देश का संविधान, नियम, कानून सभी कुछ धनबल के आगे बौना होता जा रहा है। अनपढ जनप्रतिनिधि के सामने योग्य प्रशासनिक अधिकारी हाथ बांधे उनकी मंशा जानने के लिए खडे रहते हैं। ऐसे ही जनप्रतिनिधियों का समूह मिलकर प्रशासनिक अधिकारियों के अनुपालन हेतु नीतियां बनाता हैं। यही वह कारक है जिससे देश के विकास की कल्पना की जाती है, वास्तव में यह विकास की कल्पना का साकार प्रतिमान नहीं बल्कि मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा है। पांच विधानसभाओं के होने वाले चुनावों में जनप्रतिनिधि बनकर पहुंचने की होड में शामिल लोग जब आज वैमनुष्यता फैलाने, जातिगत बटवारा करने और संप्रदायों के मध्य शत्रुता पैदा करने का खुले आम ढिढोरा पीट रहे हैं, तो फिर उनसे सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार की आशा कैसे की जा सकती है। देश के पुरातन स्वरूप को बदलने की कवायत चल रही है। वसुधैव कुटुम्बकम, कहीं खो सा गया है। इस गुमशुदा की तलाश में कोई भी नहीं निकलता। विश्वगुरु का सिंहासन आज हथियारों, पैसों और षडयंत्रों के यहां गिरवी रखा है। ऐसे में आज प्रतिनिधियों के चयन का एक बडा दायित्व हमारे सामने चुनौती बनकर खडा हो गया है। ओबैसी, मायावती, अखिलेश, योगी, टिकैत, सिध्दू, जैसे लोगों की राजनैतिक नीतियां, उनके निजी व्यक्तित्व की सीमा से बाहर नहीं हो सकतीं। कांग्रेस का फूट डालो राज करो का अंग्रेजी सिलोगन आज भी सोनिया, राहुल, प्रियंका के परिवारवाद ने मजबूती से पकड रखा है। जब कि वर्तमान में हाथ का उठा हुआ पंजा बामपंथियों के लाल सलाम हेतु झांकने लगा है। ऐसे में चुनावी घमासान में षडयंत्र के हथकण्डे का बढता कद को किसी भी दशा में सुखद नहीं कहा जा सकता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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