भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया हिजाब का मुद्दा है या वर्चस्व की जंग में निर्णायक पडाव
कर्नाटक के गवर्मेन्ट महात्मा गांधी मेमोरियल कालेज में छ: छात्राओं को हिजाब पहनकर आने से रोका गया। कालेज के नियमों को छात्राओं ने मानने से इंकार कर दिया। हाई कोर्ट में इसके खिलाफ मामला दायर कर दिया गया, जिस पर कोर्ट ने कहा है कि जब तक यह विवाद सुलझ नहीं जाता तब तक छात्रायें शैक्षणिक संस्थानों में ऐसा कोई वस्त्र नहीं पहनें, जिससे यह विवाद तूल पकडे। याचिकाकर्ताओं ने कर्नाटक हाई कोर्ट के इस अंतरिक आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा, नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती सहित पाकिस्तान की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई तक ने इसे मौलिक अधिकारों के मुंह पर तमाचे की संज्ञा से संबोधित किया। समाजवादी पार्टी की नेता रुबीना ने तो यहां तक कह दिया कि हिजाब पर हाथ डाला तो काट दिये जायेंगे हाथ। अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता संगठन में अमेरिका के राजदूत रशद हुसैन ने कहा कि स्कूलों में हिजाब को बैन करना, धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अमेरिका को भी केवल भारत में ही धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करने का होश है जबकि अनेक देशों में धार्मिक स्वतंत्रता नाम की कोई चीज ही नहीं है। वहां सभी नागरिकों को एक तरह के समान संविधान को मानने की बाध्यता है। देश के कर्नाटक राज्य से शुरू हुआ विवाद वास्तव में जानबूझ कर शुरू किया गया मुद्दा है। आतंकवाद को संरक्षण देने वाली गैंग ने अपने सीमापार के आकाओं के इशारे पर छ: छात्राओं को सुनियोजित षडयंत्र के तहत कालेज के ड्रेस कोड का उल्लंघन करवाते हुए हिजाब पहनाकर कालेज भेजा। इस तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म है। लोगों को तो यहां तक कहना है कि यह ठीक वैसी ही शुरूआत है जैसी कि शुक्रवार को नौकरी के दौरान मुस्लिम समाज के लोगों को नमाज अदा करने हेतु दोपहर में दो घंटे का विशेष अवकाश देने की पहल हुई थी। जब वह पहल सफल रही तो दबाव की राजनीति के तहत धर्म के नाम पर नसबंदी का बहिस्कार किया गया और फिर परिवार नियोजन के नाम पर होने जबरन बंधियाकरण से भी उन्हें मुक्ति मिल गई। धीरे-धीरे यह मामला सरकारी जमीनों पर धार्मिक स्थानों के अवैध निर्माण की सफल परिणति के रूप में सामने आया। अल्पसंख्यक संरक्षण के तहत विशेष सुविधाओं का सूत्रपात भी हुआ। कुछ ही दिन पहले गुरुग्राम में खुले में नमाज का मुद्दा जानबूझ कर गर्माया गया। धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब खुल्मखुल्ला मनमाने आचरण में बदलता चला गया। आज स्कूलों, कालेजों के ड्रेस कोड को अपनी इच्छानुसार बनवाने का प्रयास हो रहा है। कल के दिन पाठ्यक्रम का निर्धारण भी भीड के व्दारा ही निर्धारित करने की पहल होगी, उसके बाद संविधान को दरकिनार करते हुए शिरयत के हिसाब से समाज निर्माण की कोशिशें होंगी। देश-दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम नेता हिजाब को लेकर भारत पर दबाव बनाने में लगे हैं। रूस के मुद्दे पर भारत के तटस्थ रहने के कारण अमेरिका भी हिजाब को धार्मिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात बता रहा है। अनेक देशों में तो मुस्लिम जालीदार टोपी भी खुलेआम नहीं लगा सकते। वहां न तो धार्मिक स्वतंत्रता के नारे बुलंद होते हैं और न ही सम्प्रदायवाद के शिकंजे में जकडी जीवन जीने की पध्दति को सार्वजनिक करने की मांग उठती है। ऐसे देश ज्यादा विकसित और खुशहाल हैं। भारत में जब तक एक देश-एक कानून, की स्थापना नहीं होगी, तब तक ऐसे मुद्दों को लेकर आतंकियों के संरक्षकों के व्दारा देश में अशान्ति फैलाने का काम होता रहेगा। हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश तक को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगाई जा रही है। उन्हें इतना भी सब्र नहीं था कि हाई कोर्ट का फैसला आ जाने देते। यदि वे संतुष्ट नहीं होते तो सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले थे। वे मुद्दे को और ज्यादा गर्माने के फिराक में हैं ताकि कोर्ट को भी 30 करोड लोगों के ठेकेदारों के आगे झुकाया जा सके और देश को अशान्ति से बचाने की कीमत हिजाब को जायज ठहराकर ली जा सके। स्वाधीनता के बाद बनाये गये संविधान में जानबूझकर अंग्रेजों की फूट डालो, राज करो, की नीति का पालन करते हुए अनेक अस्पष्ट स्थितियों को शामिल किया गया था। यही नीति आज देश के लिए सिरदर्द बनी हुई है। कांग्रेस पूरी तरह से हिजाब पर लगाये गये प्रतिबंध के विरोध में ठीक उसी तरह से खडी है जैसे कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की टुकडे-टुकडे गैंग के दौरान खडी थी। इतना ही नहीं कन्हैया कुमार जैसे लोग तो उनकी पार्टी के स्टार प्रचारक भी हैं। गैर भाजपा दलों ने एक साथ खडे होकर मुसलमानों को लुभाने की कोशिशें तेज कर दीं हैं। यही हमेशा से होता आया है। बहुसंख्यकों के नाम पर शोषण की नई-नई इबारतें हमेशा से ही लिखी जाती रहीं है। परिणाम सामने है कि आज अनेक स्थानों पर तो बहुसंख्यकों की स्थिति अब अल्पसंख्यक में बदल चुकी हैं और यहां जो गैर मुस्लिम परिवार हैं उनका जीना भी दुश्वार है। कई गांव तो हिन्दू विहीन तक हो चुके हैं। कश्मीरी हिन्दुओं को खुलेआम उत्पीडित करके घाटी से भगाये जाने की क्रूर दास्तानें किसी से छुपी नहीं हैं। अपने ही देश में शरणार्थियों जैसी जिन्दगी गुजारते उनका दर्द किसी ने नहीं सुना और न ही उन्हें उनके पैत्रिक स्थानों पर फिर से बसाने की पहल हुई। किसी भी राजनैतिक दल का कोई भी कद्दावर नेता वहां हालचाल पूछने नहीं गया और न ही यह मुद्दा कभी सुर्खियां ही बना। चौपाल-चौराहों पर हो रही चर्चाओं का सारसंक्षेप केवल इतना ही है कि सम्पन्न मुस्लिम देशों से जकात और फितरा के रूप में निकाली जाने वाली धनराशि का उपयोग भारत जैसे गणराज्य में जेहाद, आतंक और धार्मिक वैमनुष्यता फैलाने के लिए खुलकर हो रहा है। जबकि इन अमानवीय कृत्यों का संरक्षण हिन्दू परिवारों में जन्म लेने वाले अनेक खद्दरधारी अपनी धर्मनिरपेक्षता दिखाने के लिए हमेशा से ही करते आ रहे हैं। हिन्दु-मुस्लिम कल भी एक थे, आज भी एक हैं और कल भी तब एक रह सकेंगे जब चंद षडयंत्रकारी अपनी रोटियां सेंकना बंद कर देंगे। गांव गली के मुद्दे वहां के निवासी स्वयं सुलझा लेंगे। वहां किसी आयातित नेता की आवश्यता नहीं होती मगर वे अपने खद्दर का धर्म निभाते हुए ठेकेदारी करने जबरियन पहुंच जाते हैं और आग लगाकर भाग निकलते हैं। हिजाब का मुद्दा कर्नाटक के एक कालेज का था। ड्रेस कोड का पालन जब सभी कर रहे थे तो फिर अचानक हिजाब पहन कर जाने की कौन सी बाध्यता आ गई थी। किसके इशारे पर यह मुद्दा पैदा किया गया। सरकार के सामने अपनी बात रखने के स्थान पर हाई कोर्ट में याचिका दायर करना भी इसे हवा देने जैसा है। उसके बाद निर्णय की इतनी जल्दबाजी क्या थी कि हाई कोर्ट के निर्णय की प्रतीक्षा नहीं की गई। जब अभी तक बिना हिजाब लगाये वे छ: छात्राये कालेज जातीं रहीं तो चंद दिनों में आने वाले अदालती फैसले का इंतजार भी किया जा सकता था। मगर अंतरिम आदेश को भी सुप्रीम कोर्ट मेें चुनौती देने की तत्काल व्यवस्था की गई। एक कालेज में मुद्दा पैदा किया गया, उसे देश के अनेक राज्यों में धार्मिक उन्माद की तरह फैलाया गया और फिर शुरू हो गया उसके अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गर्माने का सिलसिला। पूरे घटानाक्रम को सिलसिलेवार देखते हुए यह विचार करना होगा कि यह हिजाब का मुद्दा है या वर्चस्व की जंग में निर्णायक पडाव है। जब तक सभी नागरिकों के लिए एक कानून नहीं होगा तब तक इस तरह के प्रयासों से देश को खोखला करने की कोशिशें होतीं रहेंगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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