महान देशभक्त थे डा.हेडगेवार डा हेडगेवार की बताई राह पर अग्रसर है संघ (डा हेडगेवार को उनकी पुण्यतिथि पर आज 21 जून को एक विनम्र श्रद्धांजलि) कृष्णमोहन झा/
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यशस्वी संस्थापक डा केशव बलीराम हेडगेवार की आज पुण्यतिथि है। सन् 1940 में 21 जून को जब उन्होंने अंतिम सांस ली तब उनकी आयु मात्र 51 वर्ष थी । 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के रूप में उन्होंने जो पौधा लगाया था वह जब धीरे-धीरे पल्लवित हो रहा था तभी डा हेडगेवार ने अपने हजारों अनुयायियों को अलविदा कह दिया परंतु उस समय तक उन्हें यह विश्वास हो चुका था कि बिखरे हुए हिंदू समाज को संगठित करने के लिए संघ के रूप में उन्होंने जो नन्हा पौधा रोपा है वह आगे चलकर एक विशाल वट वृक्ष का रूप ले लेगा। महान कर्मयोगी डा हेडगेवार ने मात्र आधी सदी के जीवन में हिंदू समाज को न केवल स्वाभिमान से जीना सिखा दिया बल्कि इस अहसास से भी भर दिया कि हिंदू समाज एक सूत्र में बंधने का संकल्प ले ले तो दुनिया की कोई भी शक्ति उसका बाल भी बांका नहीं कर सकती। इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ हेडगेवार ने हिंदू समाज को जो राह दिखाई उस राह पर अग्रसर हिंदू समाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बैनर तले संगठित होकर आज सारी दुनिया को अपनी सामर्थ्य का अहसास करा रहा है।
डा हेडगेवार ने आठ वर्ष की छोटी सी आयु में ही यह प्रमाण दे दिया था कि राष्ट्रप्रेम उनके अंदर कूट कर भरा हुआ है। यह मौका था रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की साठवीं वर्षगांठ का जब इस उपलक्ष्य में उनके स्कूल में बांटी गई मिठाई का दोना उन्होंने घर आकर तिरस्कार पूर्वक फेंक दिया था। इसके बाद तो उनके व्यवहार में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति नफ़रत के प्रमाण बार बार मिलने लगे। जब वे नागपुर के नील सिटी स्कूल में नवीं कक्षा के छात्र थे तो तो उन्होंने अंग्रेज इंस्पेक्टर के आगमन पर अपने साथियों के मिल कर निर्भय होकर वंदेमातरम का गगनभेदी नारा लगाया था। केशव हेडगेवार को भली भांति मालूम था कि अपनी इस राष्ट्र भक्ति के लिए उन्हें स्कूल से निष्कासित भी किया जा सकता है परंतु अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी असीम नफरत और मातृभूमि के प्रति अपने अटूट प्रेम की मुखरता के साथ अभिव्यक्ति के लिए उन्हें किसी दंड की परवाह नहीं थी। केशव बलीराम हेडगेवार का स्कूल से निष्कासन कर दिया गया लेकिन उनके चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं आई । अगर केशव हेडगेवार क्षमायाचना के लिए तैयार हो जाते तो उनका निष्कासन रद्द भी हो सकता था परंतु जिस छात्र के मन में राष्ट्रप्रेम का सागर हिलोरें मार रहा हो उससे ऐसी उम्मीद भी कैसे की जा सकती थी। केशव हेडगेवार तो इसके लिए पहले से ही मानसिक रूप से तैयार थे । इसके बाद स्कूली शिक्षा पूरी करने के लिए उन्हें पूना भेजा गया जहां राष्ट्रीय विद्यालय से उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसके बाद वे चिकित्सा शिक्षा अर्जित करने के लिए कलकत्ता चले गए । वहां उन्होंने प्रथम श्रेणी में एल एम की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ली परंतु तब तक उनके मन में मातृभूमि की सेवा में ही संपूर्ण जीवन समर्पित कर देने की उत्कंठा प्रबल हो उठी थी इसलिए कलकत्ता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान ही वे क्रांतिकारियों के संगठन 'अनुशीलन समिति' और 'युगांतर' के सम्पर्क में आ गए थे और उनकी गतिविधियों में सहयोग देने लगे थे। कलकत्ता में ही उनका हिंदू महासभा से जुड़ाव हुआ। जब उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर उपाधि अर्जित कर ली तब उन्हें ब्रह्मदेश में तीन हजार रूपए मासिक की सम्मानजनक नौकरी का आफर भी मिला था परन्तु डा केशव बलीराम हेडगेवार तो तन मन धन से मातृभूमि की सेवा का व्रत पहले ही ले चुके थे इसलिए उन्होंने मोटी तनख्वाह वाली नौकरी का आफर ठुकरा दिया और 1915 में नागपुर लौट आए। नागपुर लौट कर वे कांग्रेस पार्टी से जुड़ गए और शीघ्र ही विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस के सचिव पद की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई। 1921 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण उन्हें एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। जेल से रिहा होने के बाद उनके मन में हिंदू समाज को संगठित कर उसके लिए एक सशक्त प्लेटफार्म तैयार करने के विचार पनपने लगे और वे समान विचारधारा के लोगों से सम्पर्क साधने लगे । उन्होंने मन ही मन यह संकल्प ले ले लिया कि अब हिंदू समाज को संगठित करने के लिए एक सशक्त संगठन की स्थापना किए बिना चेन नहीं लेंगे। दरअसल यही वह समय था जब डा केशव बलीराम हेडगेवार के जीवन में निर्णायक मोड़ आने के संकेत मिलने लगे थे । डा हेडगेवार ने हिंदू समाज को संगठित करने का जो सुनहरा स्वप्न अपने मन में संजोए रखा था उसे साकार करने का शुभ समय 1925 में विजयादशमी पुनीत तिथि को आया जब उन्होंने मुट्ठी भर साथियों के साथ मिलकर उस हिंदू संगठन की नींव रखी जो आज विश्व में हिंदुओं का सबसे बड़ा संगठन कहलाने का गौरव अर्जित कर चुका है। यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि इस न ए संगठन का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामकरण भी इसकी स्थापना के एक वर्ष बाद किया गया था। जिस बैठक में
नए संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम दिया गया उस बैठक में तीन नाम प्रस्तावित किए गए थे । उन नामों पर बैठक में मौजूद सदस्यों की राय जानने के लिए बाकायदा मतदान कराया गया । चूंकि सदस्यों का बहुमत नवगठित संगठन का नाम करण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करने के पक्ष में था इसलिए डा हेडगेवार की मेहनत और लगन के इस मधुर फल ने उस दिन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में अपनी पहचान बना ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है । विश्व के 50से अधिक देशों में यह अपनी पहचान बना चुका है । देश के अंदर इसकी लगभग 60 हजार शाखाएं संचालित की जा रही हैं।50 से अधिक इसके आनुषंगिक संगठन हैं। एक और उल्लेखनीय बात यह भी है कि डा हेडगेवार ने चंद कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर संघ की स्थापना तो 1925 में कर दी थी परन्तु संघ में सरसंघचालक, सरकार्यवाह और प्रचारक के पदनाम चार वर्ष बाद तय किए गए। स्वयंसेवकों की जिस बैठक में डा हेडगेवार को सर संघ चालक का पद संभालने के लिए सर्वसम्मति से चुना गया उस बैठक में डा हेडगेवार मौजूद ही नहीं थे। डा हेडगेवार ने स्वयंसेवकों के एकमतेन आग्रह पर सरसंघचालक का पद स्वीकार तो कर लिया परंतु उन्होंने संगठन में अपनी भूमिका केवल मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार की। यह परंपरा संघ में आज तक अनवरत रूप से जारी है। डा हेडगेवार ने संघ में हर स्वयंसेवक को अपनी राय व्यक्त करने की पूरी आजादी प्रदान की और यह परंपरा भी प्रारंभ की कि संघ में सभी फैसले सामूहिक सहमति के आधार पर किए जाएंगे। उन्होंने अपने विचार कार्यकर्ताओं पर नहीं थोपे। केवल मार्गदर्शन किया। संघ प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं कि 'डा हेडगेवार ने उनके जो आठ दस सालों के निष्कर्ष थे उन्हें संघ के नाते उस समय मिले तरुण कार्यकर्ताओं के साथ में दे दिया कि आजमाओ इसे और वे काम करते गए । कार्यपद्धति की छोटी-छोटी बातें आचरण में लाकर दिखाई । क्या चलता है , क्या नहीं चल सकता,में सारे प्रयोग होने के बाद 1939 में वह कार्यपद्धति पक्की हो गई।' भागवत का मानना है कि संघ की स्थापना भले ही 1925 में हो गई थी परन्तु डा हेडगेवार के मन में तो वह आठ -दस साल पहले ही शुरू हो चुका था। वह भी एक कालखंड ही है। दूसरा कालखंड ,वह है कार्यपद्धति पक्की होने का कालखंड। भागवत कहते हैं कि उस कार्य पद्धति के आधार पर और उस ज्वलंत निष्ठा,श्रद्धा के आधार पर संघ की पहली पीढ़ी के कार्यकर्ताओं ने विपरीत परिस्थितियों और कमाल की उपेक्षाओं के बावजूद अपने स्वत्त्व के आधार पर संघ को देशव्यापी बनाया।
डा हेडगेवार तत्कालीन परिस्थितियां अनुकूल न होने के कारण संघ में महिलाओं को प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे परंतु संघ में प्रवेश की इच्छुक श्रीमती लक्ष्मी बाई केलकर को उन्होंने यह सलाह देकर प्रोत्साहित अवश्य किया था कि वे अगर अपने स्तर पर महिलाओं का कोई संगठन तैयार करेंगी तो संघ उस संगठन की पूरी मदद करेगा। संघ की स्थापना के 11 वर्ष पश्चात डा हेडगेवार की प्रेरणा से ही श्रीमती लक्ष्मी बाई केलकर ने राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की ।तब से आज तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्र सेविका समिति समानान्तर संगठन के रूप में काम कर रहे हैं । दोनों संगठनों के मध्य जो सामंजस्य है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्र सेविका समिति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महिला इकाई है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है लेकिन उसे संघ से अलग करके भी नहीं देखा जा सकता।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय भी डा हेडगेवार के विचारों से प्रभावित थे। जब डा हेडगेवार हिंदू समाज को संगठित करने की अपनी योजना को मूर्त रूप देने की कोशिशों में जुटे हुए थे तब उन्होंने डा हेडगेवार के समक्ष आर्थिक मदद का प्रस्ताव भी रखा था परन्तु डा हेडगेवार ने वह प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था । बाद में डा हेडगेवार महामना मालवीय के आमंत्रण पर वाराणसी गए थे । यह भी बताया जाता है कि संघ की स्थापना यद्यपि 1925 में हो चुकी थी परन्तु विधिवत रूप से उसकी पहली शाखा डा हेडगेवार ने वाराणसी में ही लगाई थी। डा हेडगेवार समाज में जातीय भेदभाव, ऊंच नीच , अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों के घोर विरोधी थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में उन्होंने कभी भी किसी तरह का भेद-भाव पनपने का अवसर नहीं दिया। सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध सशक्त आंदोलन के सूत्रधार डा भीमराव अम्बेडकर भी जब एक बार संघ की शाखा में आए तो यह देख कर बहुत प्रभावित हुए कि संघ में जाति को कोई कोई महत्व नहीं दिया जाता। डा अम्बेडकर ने उस दिन शाखा में अपना व्याख्यान भी दिया। डा अम्बेडकर के प्रेरक उद्बोधन को सुनकर उनके बताए रास्ते पर चलने का जो संकल्प संघ ने उस दिन लिया था उस पर वह आज भी समर्पित भाव से कायम है। वर्तमान सर संघ चालक मोहन भागवत ने एक कार्यक्रम में कहा था कि "14 साल के अनुभव के पश्चात 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जो कार्य पद्धति निश्चित की गई थी उस कार्य पद्धति के आधार पर और उस ज्वलंत निष्ठा,श्रद्धा के आधार पर संघ की पहली पीढ़ी के कार्यकर्ताओं ने विपरीत परिस्थितियों और कमाल की उपेक्षाओं के बावजूद अपने स्वत्त्व के आधार पर संघ को देशव्यापी बनाया। संघ के उस देशव्यापी संपर्क के आधार पर आगे जो बड़े कठिन प्रसंग देश पर आए, उनमें से देश को भी निकाला, संघ भी बाहर निकला।"
डा केशव बलीराम हेडगेवार को बचपन में वीर शिवाजी के पराक्रम की कहानियां पढ़ना बहुत अच्छा लगता था और इनका प्रभाव उनके मन मस्तिष्क पर जीवन भर बना रहा। गीता, महाभारत और रामायण सहित सभी धार्मिक ग्रंथ वे बहुत मनोयोग से पढ़ते थे। देशप्रेम की भावना तो बचपन से ही उनके अंदर कूट कूट कर भरी थी। कलकत्ता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। हिंदू महासभा से भी जुड़े। कलकत्ता से डाक्टर बनकर लौटे तो कांग्रेस पार्टी के विधिवत सदस्य बन गए। लोकमान्य तिलक और सावरकर के विचारों की उनके मन पर गहरी छाप पड़ी। तिलक तो उनसे इतने प्रभावित हुए हुए कि उन्हें दो-दिन तक अपने घर में रोके रहे। इस दौरान डा हेडगेवार और तिलक के बीच तत्कालीन परिस्थितियों पर गंभीर यंत्रणा भी हुई । सावरकर ने हिंदुत्व के संबंध में जो विचार व्यक्त किए उन विचारों से प्रेरित होकर ही आगे चलकर उन्होंने संघ की स्थापना की। जो अव 1920 में लोकमान्य तिलक का निधन हो गया इसके बाद डा हेडगेवार ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया जिसके कारण उन्हें एक साल के कारावास की सजा सुनाई गई। बताया जाता है कि डा हेडगेवार ने अदालत में अपने बचाव में जो जोशीला भाषण दिया था उसमें उन्होंने अंग्रेजी शासन की इतनी तीखी आलोचना की । फिरंगी शासन को इतनी तीखी आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई और इसी आलोचना के कारण उन्हें कारावास का दंड दे दिया गया। दूसरी बार 1931में उन्हें जंगल सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें 9 माह के लिए जेल भेज दिया गया था। डा हेडगेवार अंग्रेज शासकों से इतनी नफ़रत करते थे कि उन्हें जेल जाना मंजूर था पर कोई भी सजा उन्हें राष्ट्रभक्ति के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बाद डा केशव बलीराम हेडगेवार संघ कार्यकर्ताओं से हमेशा कहा करते थे कि' हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है और हिंदू संस्कृति हिंदुस्तान की धड़कन है इसलिए साफ है कि अगर हिंदुस्तान की रक्षा करनी है तो हिंदुत्व को संवारना होगा।' हिंदू समाज को संगठित होने का आह्वान करते हुए डा हेडगेवार ने कहा था कि ताकत संगठन के जरिए आती है इसलिए ये हर हिंदू का कर्तव्य है कि वह हिंदू समाज को मजबूत बनाने के लिए हर संभव कोशिश करे। हिंदू समाज को संगठित करने के लिए डा हेडगेवार ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वे मानते थे कि हिंदू समाज को शक्तिशाली बनना है तो सबसे उसे एक सूत्र में बंधना होगा। छिन्न भिन्न समाज कभी ताकतवर नहीं बन सकता । डा हेडगेवार ने हिंदुत्व को संवारने की बात इसीलिए कही थी क्योंकि वे मानते थे कि हिंदुत्व में जोड़ने की अद्भुत क्षमता है । इसलिए उन्होंने संघ की स्थापना करते समय हिंदुत्व की अवधारणा को प्रधानता दी । इसीलिए आज भी संघ की विचारधारा का मूल तत्व हिंदुत्व है। डा हेडगेवार जब यह कहते थे कि हिन्दू संस्कृति हिंदुस्तान की धड़कन है तो उनका आशय यही होता था कि हिंदू संस्कृति की असली पहिचान विविधता में एकता है और हिंदुत्व को संवारकर ही हम अपनी संस्कृति की इस पहिचान को बनाए रख सकते हैं। डाक्टर साहब ने हिंदू समाज को कमजोर करने वाली सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए भी अभियान चलाया जिसने आगे चलकर सामाजिक समरसता अभियान का अभियान का रूप ले लिया। वे जीवन भर जातीय और आर्थिक भेद-भाव, ऊंच-नीच और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराईयों का पुरजोर विरोध करते रहे और संघ को इन सब बुराईयों से हमेशा दूर रखा। संघ में वह परिपाटी आज तक कायम है।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी संघ की स्थापना के बाद एक बार दिल्ली में संघ के शिविर में गए थे। उस समय संघ के संस्थापक डॉ केशव बलीराम हेडगेवार जीवित थे। गांधीजी संघ के शिविर में कार्य कर्ताओं के कड़े अनुशासन, सादगी और वहां छुआछूत की पूर्ण समाप्ति को देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। गौरतलब है कि डा हेडगेवार तो पहले ही गांधीजी के विचारों से बहुत प्रभावित हो चुके थे । इसी संदर्भ में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा न ई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम " भविष्य का भारत: संघ का दृष्टिकोण " में एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया था कि गांधी जी जब यरवदा में पकड़े गए तो नागपुर की कांग्रेस कमेटी ने तय किया कि प्रति माह 28 तारीख को गांधीजी और उनके विचारों का स्मरण करेंगे।28 अप्रैल 1922 को पहला एकत्रीकरण था और उसमें वक्ता के नाते डा हेडगेवार को बुलाया गया।डा हेडगेवार ने अपने भाषण में दो टूक। कहा कि मात्र गांधीजी का स्मरण करने से काम नहीं चलेगा। उनके जीवन में जो पराकोटि का त्याग है,और संपूर्ण निस्वार्थ भाव से देश, समाज के लिए काम करने की जो ललक है उसका हमको अनुकरण करना पड़ेगा। डा हेडगेवार की अनुकरणीय जीवन गाथा का अगर हम गहराई से अध्ययन कर उस गंभीर चिंतन करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का संपूर्ण जीवन त्याग, तपस्या और संघर्ष की ऐसी कहानी है जो संघ को समझने की उत्सुकता रखने वाले हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए।
(लेखक राजनैतिक विश्लेषक एवं IFWJ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष है)
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