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श्रीलंका को मजबूत राजनीतिक नेतृत्व ही दिला सकता है वर्तमान संकट से निजात कृष्णमोहन झा/

 भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रपति गोतबाया के विरुद्ध जनता के आक्रोश ने गत दिवस इतना भयावह रूप ले लिया कि राष्ट्रपति डर के मारे अपना महल छोड़कर भाग गए और प्रदर्शनकारियों ने  महल में घुस कर सारे महल पर कब्जा कर लिया और उनके सारे सामान को तहस नहस कर दिया। गौरतलब है कि दो माह पूर्व  राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे के बड़े भाई और तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंद्रा राजपक्षे भी जनता के आक्रोश के कारण अपने आवास से भाग खड़े हुए थे और उन्हें जनता की मांग पर अपने पद से इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा था। जनता के आक्रोश को देखते हुए गोतबाया राजपक्षे ने अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी है। दरअसल जनता के आक्रोश से बचने के लिए जब  कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा तभी दोनों भाई अपने पदों से इस्तीफा देने के लिए तैयार हुए अन्यथा वे कुर्सी से चिपके रहने में कोई संकोच नहीं करते।दरअसल श्रीलंका आज जिस भयानक आर्थिक संकट का सामना कर रहा है उसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब महिंद्रा राजपक्षे प्रधान मंत्री और उनके छोटे भाई गोतबाया राजपक्षे राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए थे इसलिए वहां की जनता इस आर्थिक संकट के दोनों भाइयों को जिम्मेदार मान रही है । ऐसा माना जा रहा है कि श्रीलंका में इस समय जिस भीषण‌ महंगाई और जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभूतपूर्व अभाव की स्थिति ने वहां की जनता का जीना दूभर कर दिया है उस पर काबू पाने के लिए सत्तासीन राजपक्षे बंधुओं ने समय रहते कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए। गोतबाया राजपक्षे जब राष्ट्रपति निर्वाचित हुए तो उन्होंने जनता की भलाई के कदम उठाने के बजाय भाई भतीजावाद को प्रश्रय देने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई और सत्ता में महत्वपूर्ण पदों पर अपने रिश्तेदारों और परिजनों को बिठा दिया ।  उनके विरुद्ध देश में आक्रोश का माहौल बनता रहा परंतु वे उसकी अनदेखी करते रहे। शायद उन्होंने अपने मन में यह भ्रम पाल लिया था कि कोई भी आक्रोश उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता। राजपक्षे बंधुओं को सत्ता के अहंकार ने इस तरह जकड़ लिया था कि उन्हें सरकार की गलत नीतियों के कारण जनता के बढ़ते असंतोष का अहसास ही नहीं हो पाया और जब उन्हें जनता के आक्रोश का अहसास हुआ तब तक पानी सर के ऊपर जा चुका था। राजपक्षे सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका  में अब  ऐसी विकट स्थिति पैदा हो गई है कि वहां अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री  कोई भी बने , उसके लिए   देश को इस भयावह आर्थिक संकट से उबारना आसान नहीं होगा। जब तक दूसरे देशों से श्रीलंका को बड़ी आर्थिक मदद नहीं मिलती तब तक वर्तमान आर्थिक संकट से सफलतापूर्वक निपट पाना उसके लिए मुमकिन नहीं हो सकता और बड़ी विदेशी मदद  पाने के लिए इस समय श्रीलंका  में राजनीतिक स्थायित्व कायम होना बहुत जरूरी है जिसकी निकट भविष्य में कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। प्रधानमंत्री पद से महिंद्रा राजपक्षे के हटने के बाद उनकी कुर्सी पर बैठने वाले विक्रमसिंघे भी श्रीलंकाई जनता का कोपभाजन बनने से नहीं बच पाए हैं और उन्होंने भी प्रधानमंत्री पद से अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी है। गौरतलब है कि क्रुद्ध प्रदर्शनकारियों ने  कल श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करने के साथ ही प्रधानमंत्री विक्रसिंघे के निजी आवास को भी आग के हवाले कर दिया था। कुल मिलाकर श्रीलंका में आज जो राजनीतिक हालात निर्मित हो गए हैं उसमें वहां जल्द ही  राजनीतिक स्थिरता का दौर लौटने की उम्मीद बेमानी प्रतीत हो रही है। श्रीलंका इस समय केवल आर्थिक संकट से ही नहीं जूझ रहा है बल्कि राजनीतिक अस्थिरता के कारण भी हालात विकट हो ग ए हैं। श्रीलंका के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति का कार्यकाल पूर्ण होने के पहले ही अगर वह पद रिक्त होता है तो संसद अपने किसी सदस्य को राष्ट्रपति चुन सकती है और तब तक प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संभालता है। वर्तमान प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने इस्तीफे की जो पेशकश की है उसके कारण वहां जटिल संवैधानिक संकट की स्थिति बन गई है।  राष्ट्र पति पद से गोतबाया राजपक्षे के हटने पर संसद को एक माह के अंदर न ए राष्ट्रपति के चयन की प्रक्रिया प्रारंभ करनी होगी और श्रीलंका का  नया राष्ट्रपति निर्वाचित होने तक वहां यह जिम्मेदारी कौन संभालेगा यह अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो पाएगा जब विक्रमसिंघे के स्थान पर कोई नया प्रधानमंत्री बनेगा। 

        श्रीलंका का निकटतम पड़ोसी देश होने के नाते भारत बराबर उसकी मदद कर रहा है ताकि वहां की जनता की तकलीफों में और इजाफा न हो ।  पिछले 6 माहों के दौरान श्रीलंका को उसके आर्थिक संकट से उबारने के लिए भारत द्वारा लगभग पांच अरब डॉलर मूल्य की मदद पहुंचाई गई है और आगे भी भारत उसकी मदद करने के लिए तैयार हैं परंतु वहां की राजनीतिक अस्थिरता के कारण भारत इतनी जल्दी कोई फैसला नहीं ले सकता। श्रीलंका के प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने भारत से लगभग डेढ़ अरब डॉलर की और मदद देने का अनुरोध किया था । इसके अलावा श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी मदद की उम्मीद लगाए रखी है। भारत अब यह प्रतीक्षा कर रहा है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष श्रीलंका को कितनी मदद मुहैया कराता है । उसी के आधार पर भारत भी फैसला करेगा लेकिन इतना तो तय है कि श्रीलंका के आम नागरिकों की तकलीफों को कम करने करने की दिशा में अपनी ओर से हर संभव मदद करने भारत पीछे नहीं हटेगा। भारत की पैनी नजर श्रीलंका में चीन की बढ़ती दिलचस्पी पर भी है जो श्रीलंका के इस अभूतपूर्व आर्थिक संकट में अपने हित साधने की कोशिश करने से नहीं चूकेगा।

          श्रीलंका इस समय  अपने इतिहास में जिस अभूतपूर्व आर्थिक संकट का सामना कर रहा है उसकी अनेक वजहें हैं परंतु मुख्य वजह तो सरकार के मनमाने गलत आर्थिक फैसले हैं जिनके कारण सरकार और  जनता के बीच दूरियां लगातार बढ़ती गई हैं । जनता का सरकार से जो मोहभंग ‌‌‌‌‌हुआ उसे भांपने में सरकार से चूक हो गई। सत्तासीन राजपक्षे बंधुओं  द्वारा भाई भतीजावाद को प्रश्रय देना जनता को पसंद नहीं आया।इस भतीजावाद के कारण भ्रष्टाचार को पनपने का भी भरपूर मौका मिला। जो महिंद्रा राजपक्षे अपने देश में लिट्टे के आतंकवाद पर विजय पाने के बाद देश में नायक बनकर उभरे थे उनका जनता से इस यश्रह मोहभंग हुआ कि उन्हें आंदोलन कारियों के आक्रोश ने प्रधानमंत्री आवास छोड़कर भागने और अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने आपातकाल लगाकर स्थिति को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया परन्तु उनका यह कदम उल्टा पड़ गया। श्रीलंका के पास इस समय जो विदेशी मुद्रा का भंडार है वह इतने‌ निचले स्तर पर पहुंच चुका  है कि वह विदेशों का कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस कमी के कारण ईंधन के आयात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। श्रीलंका की आमदनी का एक प्रमुख स्रोत पर्यटन उद्योग है लेकिन कोरोना संकट ने इसे ठप कर दिया। श्रीलंका में उत्पादन में भी बेहद गिरावट आई है। पेट्रोल, डीजल, दवाईयों, खाने पीने की वस्तुओं सहित रोजमर्रा के उपयोग की चीजों को खरीदने के लिए व्यापारिक संस्थानों के बाहर लंबी लंबी कतारें लग रही हैं। बिजली की कमी निरंतर बनी हुई है। कुल मिलाकर स्थिति इतनी जटिल हो चुकी है कि श्रीलंका अब विदेशों से भारी भरकम मदद के बिना अपने इतिहास के सबसे भयावह आर्थिक संकट का सामना करने में असमर्थ हो चुका है और विदेशों से मदद की आस तब तक पूरी होना मुश्किल है जब तक कि वहां कोई मजबूत राजनीतिक नेतृत्व उभर कर सामने नहीं आता। ऐसे समय में भारत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जा रही है।


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