भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया जंग लगी मानसिकता वाले तंत्र से जूझती सरकारें
देश के आन्तरिक हालात बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं। कानून व्यवस्था देखने वाला उत्तरदायी तंत्र सूचनायें मिलने के बाद भी निरंतर निष्क्रियता का परिचय दे रहा है। खुफिया विभाग के व्दारा दी जाने वाली सूचनाओं की उपेक्षा करने के कारण ही विसम परिस्थितियां निर्मित हो रहीं है। बिहार में हुई आगजनी की घटनाओं में वातानुकूलित कमरों से शासन चलाने वाले अधिकारियों ने धरातली कर्मचारियों के व्दारा दी जाने वाली खतरनाक स्थितियों को निरंतर नजरंदाज करने की स्थितियां सामने आईं है। इस अनदेखी के परिणामस्वरूप रेलवे के करोडों के नुकसान के अलावा देश में हुए अराजकता के खुले तांडव ने असामाजिक तत्वों के हौसलों को बुलंद कर दिए हैं। स्थानीय पुलिस प्रशासन से लेकर रेलवे के उच्चाधिकारियों तक की अकर्मण्यता को विभागीय लोगों ने ही स्वीकार किया है। ऐसी ही स्थितियां उदयपुर से लेकर अमरावती तक के मामलों में देखने को मिलतीं रहीं हैं। देश की लालफीताशाही की निरंकुशता अक्सर सामने आती रहती है। कहीं राजनैतिक दबाव का बहाना सामने आता है तो कहीं सामंजस्य की कमी देखने को मिलती हैं। कहीं राज्य सरकारों का अह्म केन्द्र के साथ दृष्टिगोचर होता है तो कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ आडे आ जाता है। कारण चाहे कुछ भी रहे हों परन्तु हालात तो बिगडे देश के और असुरक्षित हुआ आम आवाम। व्यवसाय से लेकर उत्पादनों तक में कमी आई। रोजगार की संभावनायें क्षीण होती चलीं गईं। गोरों के जमाने की कानून व्यवस्था और तिस पर काले अंग्रेजों की शोषणकारी मानसिकता ने आज देश को व्यक्तिगत विकास के कीर्तिमानी आंकडों तक तो पहुंचा दिया है परन्तु समाज के अंतिम छोर पर बैठे मध्यमवर्गीय व्यक्ति के रोटी का संघर्ष जस का तस जारी है। भ्रष्टाचार की जडों की मजबूती जहां देश में गद्दारों की संख्या में निरंतर बढोत्तरी कर रही है वहीं अधिकार प्राप्त अधिकांश लोगों का लालच, स्वार्थ तथा भौतिकता की चाहत ने व्यवस्था को तार-तार कर दिया है। उदाहरण के तौर पर देखें तो नगरों और कस्बों के कार्यालयों में लगे वाले उपकरणों की खरीदी राजधानियों में बैठे वातानुकूलित संस्कृति से जुडे अधिकारी मनमाने मापदण्डों पर करते हैं और फिर थोप देते हैं धरातल पर काम करने वालों को। आडिट के नाम पर अनेक स्थानों पर मात्र औपचारिकतायें निभाने की स्थितियों का अक्सर खुलासा होता रहता है। ऐसा ही रख-रखाव के नाम पर होने वाले खर्चों के बिलों को देखकर समझा जा सकता है। और तो और प्रशासनिक स्तर के उच्चतम स्तर पर आसीत अधिकारियों का मानसिक दिवालियापन भी किसी से छुपा नहीं हैं। कोरोना काल से लेकर आज तक एक नारा देश में गूंज रहा है कि दो गज दूरी, मास्क है जरूरी। यह नारा देने वालों से जरा यह पूछा जाये कि देश में जब मिलीमीटर, सेन्टीमीटर, मीटर और किलोमीटर की माप लागू है तो फिर गज की माप कैसे की जाये। ऐसे एक नहीं अनेक निर्देश वातानुकूलित कार्यालयों से जारी होते रहते हैं। मुकदमों के बोझ से दबी अदालतों को राहत देने की गरज से लोक अदालतों की श्रंखला प्रारम्भ की गई। इसे नाम दिया गया नेशनल लोक अदालत। यानी कि अंग्रेजी से नेशनल, हिन्दी से लोक और उर्दू से अदालत शब्दों को मिश्रण करके एक नई भाषा पैदा कर दी गई। क्या इसे नेशनल पब्लिक कोर्ट या राष्ट्रीय लोक न्यायालय या फिर कौमी आवाम अदालत नहीं कहा जा सकता था। मगर वातानुकूलित कार्यालयों के भौतिक संसाधनों के मध्य मोटी पगार पाने वाले काले अंग्रेजों के निर्देशों को अन्तिम निर्णय मानना, आज भी अधीनस्तों के लिए बाध्यता है। यदि किसी प्रतिभाशाली अधीनस्त ने इन खामियों को रेखांकित करने की कोशिश की, तो सत्य मानिये कि उसे मूर्खता करने वाले को आइना दिखाने का खामियाजा स्वयं का अहित करके ही चुकाना पडेगा। भाषाओं के कोकटेल से एक नई शब्दावली गढने वालों को, तुगलकी फरमान जारी करने वालों को तथा मध्यमवर्गीय समाज के शोषण हेतु योजनायें बनाने वालों को समय-समय पर पुरस्कृत भी किया जाता रहा है। देश की आंतरिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखने के जिम्मेदार लोग, सरकारों की मंशा को आंशिक रूप में स्वीकार करके व्यक्तिगत हितों को साधने में लग जाते हैं। आज हालात यह है कि कुशल मैकैनिक भी जंग में डूबी मशीन को पूरी गति से चलाने में असमर्थ हो रहा है। यह एक दिन में नहीं हुआ कि भ्रष्टाचार की जंग ने कर्तव्यपरायणता को समाप्त करने की कसम खाई हो। स्वाधीनता के बाद देश के संविधान को गोरे अंग्रेजों की गोद में बैठकर लिखा गया, उसे हमारे देश के काले अंग्रेजों ने भारत, इंडिया और हिन्दुस्तान के रूप में लागू किया और फिर शुरू हो गयी सरकारों-अधिकारियों की जुगलबंदी। किसी खद्दरधारी की स्वार्थपरिता ने यदि अधिकारी के सामने अपनी मंशा जाहिर की तो विश्वास कीजिये, वह मंशा तो पूरी होगी ही परन्तु माननीय की आड में वह अधिकारी महोदय स्वयं के लाभ के लिए हजारों काम और निपटा लेते हैं। यह क्रम निरंतर तेज होता चला गया और आज यह स्थिति हो गई कि माननीयों को अपने स्वयं के काम के लिए भी महोदयों के आगे घंटों हाथ बांधे खडे रहना पडता है। भ्रष्टाचार का दानव आज दावानल बनकर ठहाके लगा रहा है। देश के राजनैतिक दलों को मिलने वाली दान राशि का विवरण नहीं मांगा जा सकता तो फिर खद्दरधारी की व्यक्तिगत कमाई का अधिकांश भाग गुप्त रखने का क्रम भी चल निकला। ऐसे ही अधिकारियों की आय से अधिक सम्पत्ति और बेनामी जायजाद के सिलसिले ने भी जोर पकड लिया। पाश्चात्य शैली और भौतिक संसाधनों की चरम सीमा पर पहुंचने की मृगमारीचिका ने मानवीय मूल्यों, सामाजिक सिध्दान्तों और नैतिकता को कुचलते हुए कभी न मिलने वाले लक्ष्य की ओर दौडना शुरू कर दिया है। इस दौड में आज भ्रष्टाचार, अवैध कृत्य, असामाजिकता, अपराध जैसे अनेक कारकों ने सहयोगी बनकर प्रेरणात्मक रूप प्रस्तुत किया है। सरकारी तंत्र में सही काम के लिए जूझने वालों के मुंह पर गलत काम करवाने वाले अपनी चांदी की जूती से वार करते हुए खुले आम देखे जा सकते हैं। तनख्वाय को पुरस्कार मानने वाल अब अपने दायित्व के अधीन आने वाले काम के लिए अतिरिक्त दामों की चाहत रखने लगे हैं। अवैध कामों के लिए मिलने वाले भारी भरकम सुविधा शुल्क के तले वास्तविक आवेदकों को कुचलने की खबरें तो अब आम हो गईं हैं। पहले भ्रष्ट अधिकारियों की गिनती होती थी और अब ईमानदारों को चिन्हित किया जाता है। ईमानदारी का अर्थ केवल भ्रष्टाचारविहीनता से ही नहीं है बल्कि उसके साथ-साथ कर्तव्यपरायणता, संवेदनशीलता, कुशलता और बुध्दिमत्ता जैसे गुणों के समुच्चय से है। वर्तमान हालातों में आम आवाम को स्वयं के हित के लिए आदर्श मूल्यों का विस्फोट करने से बचना होगा, लाभ के लिए असंवैधानिक कृत्यों को देना होगी तिलांजलि और उत्तरदायियों को दिखाना होगा कर्तव्यों का आइना। तभी सार्थक परिणामों की दिशा में बढना सम्भव हो सकेगा। अन्यथा निरंतर बेलगाम होता यह तंत्र, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी एकता के नारे के तले अपनी मनमानियां करता ही रहेगा। केन्द्र से चलने वाला एक रुपया हितग्राही के पास तक पहुंचने तक एक पैसे का रूप ले लेता है, ऐसे आरोपों की जांच भी एक लालफीताशाह ही करता है जिसे एकता का नारा हर पल याद रखना होता है। आज हालात यह है कि जंग लगी मानसिकता वाले तंत्र से जूझ रहीं है सरकारें। इस विकराल होती स्थिति का अन्त करने के लिए एक बार फिर आम आवाम को उठना पडेगा अन्यथा बिगडते हालातों को बद-से-बद्तर होने से रोकना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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